27 अप्रैल, 2016

अवकाश - -

वो तमाम ख़ूबसूरत पल, रहने दो यूँही
जज़्ब मुक्कमल, अभी बहुत दूर
हैं सावन के मेघ सजल।
ठहरो कुछ देर और
ज़रा कि तपते
जज़्बात
को संदली अहसास मिले, भटका हूँ मैं
अनवरत, न जाने कहाँ - कहाँ उम्र
भर, अब जाके तुम मिले हो
किसी ग़ुमशुदा मंज़िल
की तरह, चलो
फिर उड़ें
तितलियों के हमराह, और पहुँचे किसी
वर्षा वन में, सुलगते जीवन को
इसी बहाने कुछ पलों का
अवकाश मिले।

* *
- शांतनु सान्याल

18 अप्रैल, 2016

रेशमी अहसास - -

नहीं रुकते रौशनी के बहाव, आसमां
चाहे जितना उदास हो, ज़िन्दगी
और अनगिनत ख़्वाबों के
सिलसिले यूँ ही रहते
हैं रवां इक छोर
से दूसरे
किनारे। ये आईने का शहर है लेकिन
राहों में कोई प्रतिबिम्ब नहीं, वो
तमाम मरहमी चेहरे क़रीब
पहुँचते ही लगे बेहद
ख़ौफ़नाक, जो
दूर से नज़र
आए थे हमदर्द सारे। इक मैं ही न था
यहाँ लुटा मुसाफ़िर, आँख खुलते
ही देखा कि सारा आसमान
है ख़ाली, और दूर तक
बिखरे पड़े हैं कुछ
टूटे हुए तारे।
चलो, फिर इक बार बुने वही ख़्वाबों
की दुनिया, कुछ रंगीन धागे
हो तुम्हारे, कुछ रेशमी
अहसास रहें
हमारे।

**
- शांतनु सान्याल 

10 अप्रैल, 2016

ख़्वाबों के परे कहीं - -

इक अनबुझ तिश्नगी है वो,
जो उठे सुलगते सीने से,
चाँद रात हो या कोई
अमावस का
अंधेरा,
हर लम्हा ज़िन्दगी चाहे उसे
और सिर्फ़ उसे महसूस
करना, अपनी
सांसों की
असीम
गहराइयों में। न कोई कश्ती
न ही कोई किनारा नज़र
आए दूर तक, इक
अजीब सी
ख़मोशी
जोड़ती है मेरी रूह को तुझसे,
बहुत मुश्किल है कुछ
अहसासों को यूँ
लफ़्ज़ों का
पैरहन
देना, कुछ पिघलते जज़्बातों
का यूँ हक़ीक़त में ढलना,
ख़्वाबों के परे किसी
का, यूँ उजाड़
हो कर
अंतहीन मुहोब्बत करना - - -

* *
- शांतनु सान्याल

04 अप्रैल, 2016

निगाहों के परे - -

अभी हल्का सा अंधेरा है दूर तक, ज़रा रात
को और गहराने दे, मुझे बेशक़ यक़ीं है
तेरी सदाक़त पे ऐ दोस्त, फिर भी
चाँद सितारों को ज़रा, और
उभर आने दे। अभी
मेरे लब पे आ
ठहरे हैं
तेरे सांसों के कुछ उड़ते हुए बादल, कुछ देर
यूँ ही बेख़ुदी में, ज़िंदगी को और बहक
जाने दे। वो नशा जो रूह तक
उतर जाए दम - ब - दम,
कुछ इस अंदाज़ में
मेरे मेहबूब,
दिल की
ज़मीं पे, नीम सुलगता आसमां उतर आने
दे। न सोच अभी से तक़दीर ए शमा,
अभी तो बहुत दूर है सुबह की
दस्तक, मेरी निगाहों
के परे कोई नहीं
इस पल
इक तेरे सिवा, इसी पल में मुझे मुकम्मल
पिघल जाने दे।

* *
- शांतनु सान्याल

30 मार्च, 2016

कटुसत्य - -

इस हक़ीक़त को झुठलाना नहीं आसां,
कि हर एक शख़्स है, चार दीवारों
के बीच कहीं न कहीं खुला
बदन, या और खुल
के यूँ कहें कि
बिलकुल
नंगा।
दरअसल, हम भी ऑक्टोपस से कुछ
कम नहीं, बदलते हैं लिबास और
नियत दोनों ही, ज़रुरत
के मुताबिक़, कभी
उथले किनारों
में छुप के
और कभी गहरी खाइयों में गुम होकर।
वही अंतहीन, शिकार और शिकारी
के बीच का चिर - परिचित
मायावी खेल, सिर्फ़
बदलते हैं
मंज़र।
क्रमशः अरण्य, समुद्र, पहाड़, जनमंच,
ख़्वाबगाह, भीड़ भरी नुक्कड़ या
टूटे घुंघरुओं के स्वर। घूमता
रहता है यूँ ही वक़्त के
आईने का झूमर।
और हर
तरफ बिखरे होते है रंग बिरंगे असली
नक़ली उतरन।

* *
- शांतनु सान्याल


26 मार्च, 2016

अदना सा - -

हर तरफ है इक अजीब सी -
रक़ाबत, इक अजीब सी
फ़र्क़ गुज़ारी, ज़ेर ए
ज़मीं हो जैसे
नीम
सुलगता आग कोई, ये शहर
अब न रहा मिशाल ए
बिरादरी,कि डर सा
लगता है मुझे
शाम ढलते,
अपनी
ही गली में बेख़ौफ़ हो के - - -
निकलना, कहीं लूट
न ले कोई दस्त
ए आशना
मुझको।
वैसे ऊँची मीनारों से झिरती हैं
कुछ सब्ज़ रौशनी, कुछ
झाँकते  हैं शामे
चिराग़ मंदिरों
से भी,
फिर भी न जाने क्यों, इन -
मनहूस राहों से दहशत
सी होती है, कहीं
कोई न पूछ
ले मुझसे
सबूत ए मज़हब, कैसे बताऊँ
कि मैं सिर्फ़ इक अदना
सा इंसान हूँ।

* *
- शांतनु सान्याल

13 मार्च, 2016

सुदूर कहीं - -

तलहटी में फिर खिले हैं टेसू
और लद चली हैं महुए
की डालियाँ।
क्रमशः
जुड़ से चले हैं टूटे हुए स्लेट,
फिर खोजता है दिल
टूटे हुए कुछ
रंगीन
कलम, न जाने कौन चुपके
चुपके फिर सजा चला है
पतझर की तन्हाइयां।
दूर टेरती है
टिटहरी
शायद कहीं आज भी है मौजूद,
उसके सजल आँखों के
सोते, फिर बुलाती
हैं मुझे सुदूर
गुमशुदा
यादों की गहराइयां। तलहटी में
फिर खिले हैं टेसू और लद
चली हैं महुए की
डालियाँ।

* *
- शांतनु सान्याल 

29 फ़रवरी, 2016

मायावी रात - -

हर कोई यहाँ है एक ही मंज़िल का मुसाफ़िर,
ये दिगर बात है कि फ़रेब सोच बना दे
तुम्हें मोमिन और मुझे काफ़िर !
तमाम तफ़ावत घुलमिल
से जाएंगे ग़र दिल
की गहराई
बने
शीशे की तरह पारदर्शी, ज़िन्दगी भर वो यूँ -
ही दौड़ता रहा अविराम, मृगतृष्णा के
पीछे, फिर भी न जाने क्यूँ
अंतरतम उसका हो न
सका अनुरूप
आरशी !
इक मौन अट्टहास और इक निःशब्द गूँज, वो
शख़्स आख़िर लौट आया हमेशा की
तरह ख़ाली हाथ, फिर वही दूर
तक अंतहीन ख़ामोशी,
फिर वही ख़्वाबों
के इंद्रजाल,
फिर वही उसे छूने की अभिलाष, फिर वही - -
मायावी रात !

* *
- शांतनु सान्याल 
 

23 फ़रवरी, 2016

इंतज़ार - -

मिज़ाज ए मौसम, परदेशी परिंदे,
और चेहरे में उभरती अदृश्य
लकीरें, यक़ीन मानो
बहोत कठिन
है वक़्त
को गिरफ़्तार करना। सुलगते दिन,
सिमटती नदी, उड़ते हुए ज़र्द
पत्ते और उनकी झुकी
निगाहों के साए,
इस हाल
में, कौन न चाहेगा ज़िन्दगी का यूँ
इंतज़ार करना।

* *
- शांतनु सान्याल

22 फ़रवरी, 2016

ख़ुद से मुलाक़ात हुई - -

कितने दिनों के बाद यूँ आईने से बात हुई
कितने दिनों के बाद ख़ुद से मुलाक़ात हुई,

उम्र तो बीत गई यूँ दरख़्तों की देखभाल में
आख़री ढलान पे जा कहीं परछाई साथ हुई,

किसे याद रहता है बचपन की नादानियां,
ख़्वाबों के सफ़र में यूँ तमाम मेरी रात हुई,

हर कोई था बेबश हर कोई जां छुड़ाता सा,
रात ढलते ज़िन्दगी, तवायफ़ी जज़्बात हुई,

तुम भी चाहो तो आख़री ठहाका लगा जाओ,
बहुत दिनों बाद शहर में आज बरसात हुई,

* *
- शांतनु सान्याल





20 जनवरी, 2016

* हमआहंगी - -

राहरू में मुद्दतों बाद खिले हैं
गुल ए शबाना फिर कोई
याद महकी है दर
गोशा ए
ज़िन्दगी। वरगलाने से लगे
हैं बाद ए मअतर रात
गहराते फिर रास
आने लगी है
मुझको
पुरानी आवारगी। लोग चाहे
जो भी कहें अब लौटना
नहीं मुमकिन,
बहुत
मुश्किल है छोड़ना अब रंग
ज़ाफ़रानी ! नफ़स दर
नफ़स में है यूँ 
समायी
उसकी हमआहंगी।

* *
- शांतनु सान्याल
अर्थ :
राहरू - अहाता
गुल ए शबाना - रातरानी फूल
गोशा ए ज़िन्दगी - जीवन का कोना
बाद ए मअतर - ख़ुशबूदार हवा
नफ़स - सांस, आत्मा
*हमआहंगी - समरसता

14 जनवरी, 2016

वक़्त से पहले - -

स्याह ख़ामोश रात की अपनी ही थी
मजबूरी, यूँ तो आसमान था
लाख सितारों से भरा।
दरअसल बहुत
कुछ की
चाह में कई बार निगाहों से फ़िसल -
जाते हैं रंगीन ख़्वाब और हम
ऊंघते हुए गुज़ार आते हैं
ख़ूबसूरत लम्हात।
हम भटकते
रहते हैँ
यूँ ही उम्रभर न जाने कहाँ कहाँ, जबकि
अंतहीन ख़ुश्बुओं का अम्बार
रहता है बिखरा हुआ,
हमारे पहलू के
आसपास।
दरअसल हम बढ़ती उम्र के साथ ख़ुद
को आईने में देखना भूल जाते हैं
और यहीं से भावनाओं पर
जंग की परत उभरने
लगती है, जो
वक़्त से
पहले हमें बूढ़ा जाती है, और हम दूर
छूटते चले जाते हैं - - -

* *
- शांतनु सान्याल

20 दिसंबर, 2015

अब फ़र्क़ नहीं पड़ता - -

हमने ख़ुद ही क़बूला है जुर्म अपना
अब फ़र्क़ नहीं पड़ता, सज़ा ए
मौत पे मुहर किस किस
की है। ये दस्तबंद,
ये ज़ंजीर ए
आहन,*
बदल नहीं सकते मेरी वाबस्तगी ए
रूह उनसे, अब फ़र्क़ नहीं पड़ता
ख़ारिज़ ए जन्नत पे असर
किस किस की है।
हमने तो सब
कुछ पा
लिए उन्हें तहे दिल उतारने के बाद,
अब कोई ख़्वाहिश नहीं बाक़ी
इश्क़ उनका पाने के बाद,
अब ये धूसर ज़मीं ही
लगती है हमें
दिलो जां
से ख़ूबसूरत कहीं, अब फ़र्क़ कुछ भी
नहीं पड़ता, हमें बर्बाद करने में
ये पोशीदा ज़हर किस
किस की है। सज़ा
ए मौत पे मुहर
किस किस
की है।

* *
- शांतनु सान्याल
* लोहा
  

10 दिसंबर, 2015

अपनी धरती - -

कितने सल्तनत बने और
बिखरे इसी ज़मीं की
गोद में, लेकिन
इसका
आँचल कभी सिमटा नहीं।
ये माँ है अंतहीन
दुआओंवाली,
इसे
जिसने भी ठुकराया, चैन
से सो न पाया उम्र भर
कभी। चाहे तुम
जहाँ भी
जाओ,
सहरा से किसी गोशा ए
फ़िरदौस में, लौट
आओगे इक
दिन,
इसी माँ के दामन ए
चाक में। ये ज़मीं
है फ़रिश्तोंवाला,
यहाँ हर चीज़
है इबादत
के क़ाबिल, यहाँ ज़िन्दगी
उभरती है संग ओ
राख में।

* *
- शांतनु सान्याल 

06 दिसंबर, 2015

सम्पूर्ण जन गण मन - - राष्ट्रीय गीत
.
गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर भारत के बँगला साहित्य के शिरोमणि कवि थे.
उनकी कविता में प्रकृति के सौंदर्य और कोमलतम मानवीय भावनाओं का उत्कृष्ट चित्रण है.
"जन गण मन" उनकी रचित एक विशिष्ट कविता है जिसके प्रथम छंद को हमारे राष्ट्रीय गीत होने का गौरव प्राप्त है.
बंगला मूल शब्दार्थ *

जन गण मन - -
जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मागे
गाहे तव जय गाथा
जन गण मंगल दायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे

अहरह तव आह्वान प्रचारित
शुनि तव उदार वाणी
हिन्दु बौद्ध शिख जैन
पारसिक मुसलमान खृष्टानी
पूरब पश्चिम आशे
तव सिंहासन पाशे
प्रेमहार हय गाँथा
जन गण ऐक्य विधायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे

*(अहरह: निरन्तर; तव: तुम्हारा
शुनि: सुनकर
आशे: आते हैं
पाशे: पास में
हय गाँथा: गुँथता है
ऐक्य: एकता )
पतन-अभ्युदय-बन्धुर-पंथा
युगयुग धावित यात्री,
हे चिर-सारथी,
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माझे
तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुख-त्राता,
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे

*(अभ्युदय: उत्थान; बन्धुर: मित्र का
धावित: दौड़ते हैं
माझे: बीच में
त्राता: जो मुक्ति दिलाए
परिचायक: जो परिचय कराता है )
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथे
पीड़ित मुर्च्छित-देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल
नत-नयने अनिमेष
दुःस्वप्ने आतंके
रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता,
जन-गण-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे

*(निविड़: गाढ़ा
छिल: था
अनिमेष: अपलक
करिले: किया; अंके: गोद में )

रात्रि प्रभातिल उदिल रविछवि
पूर्व-उदय-गिरि-भाले,
गाहे विहन्गम, पुण्य समीरण
नव-जीवन-रस ढाले,
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा,
जय जय जय हे, जय राजेश्वर,
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
* (प्रभातिल: प्रभात में बदला; उदिल: उदय हुआ )




05 दिसंबर, 2015

अद्भुत हिलोर - -

आधी रात, जब निस्तब्ध धरा
करे तारों से बात, सुनसान
सड़कों में घूमे कोई
ख़्वाबों का
फेरीवाला। आकाशगंगा तब
गलबहियां डाले ले जाना
चाहे मुझे, बहुत दूर,
जहाँ रहता है
इक
सतरंगी फिरकीवाला। उस -
इंद्रधनुषी हिंडोले में
जीवन पाए
नव
अनुभूति, तन - मन में उठे
तब इक अद्भुत हिलोर
करे इंद्रजाल सा
कोई नयन -
मदिरावाला ।
* *
- शांतनु सान्याल



01 दिसंबर, 2015

हज़ार बार - -

न कर दिल के दरवाज़े
 बंद, यूँ बेरुख़ी से
दोस्त, बहोत
मुश्किल
से कभी दस्तक ए बहार
होते हैं। यूँ तो सरसरी
निगाहों की कमी
नहीं जहां में,
लेकिन
बहोत कम तीर ए नज़र
दिल के पार होते हैं।
उनसे मिल कर
अक्सर
तिश्नगी बढ़ जाती है
बारहा, जो ख़ामोश
रह कर भी
गहरे,
इश्क़ ए तलबगार होते
हैं। यूँ तो, वो नहीं
मुख़ातिब
मुझसे,
फिर भी, न जाने क्यूँ वो
मेरे पहलू में इक नहीं,
हज़ार बार
होते हैं।

* *
- शांतनु सान्याल 


27 नवंबर, 2015

* राब्ता नफ़स - -

बुलाती हैं मुझे साँझ ढलते
वो ख़ामोश निगाहें,
अपने आप मुड़
जाती हैं
सिम्त उसके ज़िन्दगी की
राहें। बहोत अँधेरा है
उस दहलीज़ के
पार फिर
भी, न जाने क्यों जज़्बात
मेरे उसी में, यूँ ही खो
जाना चाहें। 
वो तमाम रिश्ते हमने तोड़
दिए जो थे महज़
रस्मी, इक
राब्ता
नफ़स है बाक़ी चाहे तो वो
निभा जाऐं।
* *
- शांतनु सान्याल
* राब्ता नफ़स - - रूह से रिश्ता

26 नवंबर, 2015

काश - -

राज़ ए तबस्सुम न पूछ
हमसे ऐ दोस्त,
अनकहे
अफ़सानों के उनवां नहीं
होते। यूँ तो बिखरे
थे हर तरफ
रौशनी के
बूँद,
हर अक्स लेकिन नीले
आसमां नहीं होते।
न जाने क्या था
उनकी चाहतों
का
पैमाना,हर गुज़रती - -
आहट दश्त ए
कारवां
नहीं
होते। उनकी क़दमों की
आहट ने ताउम्र
सोने न दिया,
काश, ये
मेरे
दिल फ़रेब अरमां नहीं -
होते।
* *
- शांतनु सान्याल
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09 नवंबर, 2015

वजूद का परिंदा - -

बुझाने में यूँ तो उसने, कोई
कसर न रखी थी बाक़ी,
फिर भी बर अक्स
तुफ़ां के जले हैं
चिराग़
लहरा कर। बहोत संगे जान
है मेरे वजूद का परिंदा,
हर हाल में उड़
जाता है
मजरूह पंख फहरा कर। न
आज़मा मुझे यूँ अपने
ख़ुद अफ़रीदा*
मयार में,
कि रूह मेरी निकल जाती है
आसमां का सीना गहरा
कर।
* *
  - शांतनु सान्याल
*अफ़रीदा - रचित
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

06 नवंबर, 2015

लौटते क़दम - -

फिर घेरती हैं शाम ढलते बचपन की यादें,
वो झील का किनारा, वो टिटहरी की
टेर, और दूर पहाड़ी की ओट
में सूरज का धीरे से
ओझल हो
जाना।
फिर कहीं से तुम आते हो बन कर अरण्य
गंध, सुरमयी अंधेरा फिर खोलता है
अतीत के अनछुए अनुरागी
पल और मैं हमेशा की
तरह करता हूँ
तलाश,
किसी खोई हुई परछाई को। फिर गहराती
है रात लिए सीने में अंतहीन सवाल,
फिर कोई मेरी विनिद्र आँखों
में रख जाता है तृषित
कपास, और मैं
क्रमशः
लौट जाता हूँ सधे क़दमों से बहोत दूर, जहाँ
कोई नहीं होता मेरे आसपास।
* *
- शांतनु सान्याल

 

28 अक्टूबर, 2015

शाम ए चिराग़ - -

वो तमाम हसरतें, जो तुझसे
थीं वाबस्ता कभी, ढहते
पलस्तर में, आज
भी हमने
सजाए रखा है। बहुत मुश्किल
है दिल का यूँ खंडहर हो
जाना, इश्क़ ए अरकां *
को हमने दिल में
बसाए
रखा है। हर इक के बस में है -
कहाँ तामीर ए ताजमहल,
बेइंतहा चाहत को
हमने दिल से
लगाए
रखा है। मालूम है, हमें असर
ए तूफ़ां का मंज़र, फिर भी,
पागल हवाओं के आगे
दिले चिराग़ जलाए
रखा है।
* *
- शांतनु सान्याल
* अरकान - स्तम्भ
 

17 अक्टूबर, 2015

नाज़ुक हलफ़ - -

पुरअसरार धुंध सा है
बिखरा हुआ दूर
दूर तक,
रूह
परेशां मेरी तलाशे है
तुझे हो कर
बेक़रार।
धरती
और आसमां के बीच
है कोई मूक संधि,
या निगाहों की
चाँदनी
समेटे है मुझे बार बार।
तेरे पहलू से हैं बंधे
हुए सारे जहाँ
की मस्सरतें
क्यूँ कर
न जागे, मेरे दिल में
ख़्वाहिशें हज़ार।
कोई अनजान
सा नशा है
तेरी
आँखों में शायद, न
पीने का हलफ़
मुझसे टूट
जाता है
बार बार।
* *
- शांतनु सान्याल

 

24 सितंबर, 2015

गिरह पुराने - -

न खोल गिरह पुराने
कुछ दर्द अनजाने,
रहने दे यूँ ही
गुमशुदा
अनकहे अफ़साने। उन
लोगों की थी शायद
अपनी मजबूरी
कभी गले
से लगाया, कभी लगे
ठुकराने। बेशक
हर कोई
यहाँ,
है अपनी धुरी से बंधा,
इक ज़रा सी बात
पर बनते हैं
हज़ार
 बहाने। न मैं नीलकंठ
बन सका, और न
तू  ही मीरा
चन्दन
और भुजंग हैं यहाँ मित्र
बहुत पुराने। न खोल
गिरह पुराने कुछ
दर्द अनजाने।

* *
- शांतनु सान्याल

08 सितंबर, 2015

आप साथ हो लिए - -

हम यूँ ही अपने आप में
 रूह ए  जज़्ब थे,
न जाने
किस मोड़ पे, आप साथ
हो लिए। सुरमयी
कोई शाम
थी या
मख़मली रात, न जाने -
किस पल दिल
अपना हम
खो
दिए। यूँ तो कम न थे
ज़िन्दगी में दर्द
ओ ग़म,
फिर
न जाने क्यूँ दर्द नया -
सीने में बो लिए।
अजीब सी
कैफ़ियत
है दिल
की आजकल कभी यूँ
ही हंस लिए कभी
बेवजह रो
लिए।

* *
- शांतनु सान्याल

06 सितंबर, 2015

निगाहे नूर - -

मेरी चाहतों को काश
एक मुश्त सुबह
की धूप
मिलती, यक़ीन मानो
मेरी ज़िन्दगी भी
फूलों से कम
न होती।
ताहम कोई शिकायत
नहीं इस कमतर
रौशनी के लिए,
इक ज़रा
निगाहे
नूर तेरी काफ़ी है मेरी
ज़िन्दगी के लिए।
* *
- शांतनु सान्याल
 

30 अगस्त, 2015

फिर कोई होगा शिकार - -

कोई तेज़ रफ़्तार ट्रेन गुज़री है अभी अभी। 
पटरियों में कुछ ताज़े, काँपते ज़ख्म
हैं अभी तलक ज़िंदा। वादियों
में फिर उभरा है चाँद,
फिर कोई होगा
शिकार
खुली चाँदनी में। न देख मुझे आज की रात
यूँ क़ातिल अंदाज़ में। इक तिलिस्म
सा है तेरी पुरअसरार मुहोब्बत 
में, कि जो भी फँस जाए
उम्रभर न निकल
पाए तेरी
निगाह ए जाल से। तुझे ख़ुद ये मालूम नहीं
कि तेरे दम से है रौशन नीला फ़लक
दूर तक, और ज़मीं है मुबारक
तेरे रुख़ ए जमाल से।

* *
- शांतनु सान्याल
art of dang can 
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
https://www.facebook.com/shantanu.sanyal.new

28 अगस्त, 2015

जाते जाते - -

कुछ लम्हात यूँ ही और
नज़दीक रहते, कुछ
और ज़रा जीने
की चाहत
बढ़ा
जाते। ताउम्र जिस से
न मिले पल भर
की राहत,
काश,
कोई लाइलाज मर्ज़ 
लगा जाते। किस
मोड़ पे फिर
रुकेगी
फ़स्ले बहार, काश, जाते
जाते अपना पता
बता जाते।
तुम्हारे
जाते ही घिर आए
बादलों के साए,
मन - मंदिर
में कोई
साँझ दीया जला जाते।
कुछ अनमनी सी हैं
रातरानी की
डालियाँ,
हमेशा
की तरह गंधकोशों में
ख़ुश्बू बसा
जाते। 

* *
- शांतनु सान्याल
  

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