बुझाने में यूँ तो उसने, कोई
कसर न रखी थी बाक़ी,
फिर भी बर अक्स
तुफ़ां के जले हैं
चिराग़
लहरा कर। बहोत संगे जान
है मेरे वजूद का परिंदा,
हर हाल में उड़
जाता है
मजरूह पंख फहरा कर। न
आज़मा मुझे यूँ अपने
ख़ुद अफ़रीदा*
मयार में,
कि रूह मेरी निकल जाती है
आसमां का सीना गहरा
कर।
* *
- शांतनु सान्याल
*अफ़रीदा - रचित
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
कसर न रखी थी बाक़ी,
फिर भी बर अक्स
तुफ़ां के जले हैं
चिराग़
लहरा कर। बहोत संगे जान
है मेरे वजूद का परिंदा,
हर हाल में उड़
जाता है
मजरूह पंख फहरा कर। न
आज़मा मुझे यूँ अपने
ख़ुद अफ़रीदा*
मयार में,
कि रूह मेरी निकल जाती है
आसमां का सीना गहरा
कर।
* *
- शांतनु सान्याल
*अफ़रीदा - रचित
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