06 नवंबर, 2015

लौटते क़दम - -

फिर घेरती हैं शाम ढलते बचपन की यादें,
वो झील का किनारा, वो टिटहरी की
टेर, और दूर पहाड़ी की ओट
में सूरज का धीरे से
ओझल हो
जाना।
फिर कहीं से तुम आते हो बन कर अरण्य
गंध, सुरमयी अंधेरा फिर खोलता है
अतीत के अनछुए अनुरागी
पल और मैं हमेशा की
तरह करता हूँ
तलाश,
किसी खोई हुई परछाई को। फिर गहराती
है रात लिए सीने में अंतहीन सवाल,
फिर कोई मेरी विनिद्र आँखों
में रख जाता है तृषित
कपास, और मैं
क्रमशः
लौट जाता हूँ सधे क़दमों से बहोत दूर, जहाँ
कोई नहीं होता मेरे आसपास।
* *
- शांतनु सान्याल

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past