बुलाती हैं मुझे साँझ ढलते
वो ख़ामोश निगाहें,
अपने आप मुड़
जाती हैं
सिम्त उसके ज़िन्दगी की
राहें। बहोत अँधेरा है
उस दहलीज़ के
पार फिर
भी, न जाने क्यों जज़्बात
मेरे उसी में, यूँ ही खो
जाना चाहें।
वो तमाम रिश्ते हमने तोड़
दिए जो थे महज़
रस्मी, इक
राब्ता
नफ़स है बाक़ी चाहे तो वो
निभा जाऐं।
* *
- शांतनु सान्याल
* राब्ता नफ़स - - रूह से रिश्ता
वो ख़ामोश निगाहें,
अपने आप मुड़
जाती हैं
सिम्त उसके ज़िन्दगी की
राहें। बहोत अँधेरा है
उस दहलीज़ के
पार फिर
भी, न जाने क्यों जज़्बात
मेरे उसी में, यूँ ही खो
जाना चाहें।
वो तमाम रिश्ते हमने तोड़
दिए जो थे महज़
रस्मी, इक
राब्ता
नफ़स है बाक़ी चाहे तो वो
निभा जाऐं।
* *
- शांतनु सान्याल
* राब्ता नफ़स - - रूह से रिश्ता
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