07 अगस्त, 2025

क्या से क्या बना दिया - -

भीगने की जुस्तजू ने इंतज़ार ए शब बढ़ा दिया,

बरसात की चाह ने हमें क्या से क्या बना दिया,

कभी हम से थी आबाद मुहोब्बत की बस्तियां,
वीरानगी है हर सिम्त जब से उसने भुला दिया,

कब गुज़रा सितारों का कारवां कुछ याद नहीं,
आधीरात से पहले भीगे जज़्बात ने सुला दिया,

संग कोयला से ही उभरता है ताब ए कोहिनूर,
सही वक़्त दर्पण ने अपने अक्स से मिला दिया,

बहोत फ़ख़्र था उसे अपनी ऊंची हवेलियों का,
ज़लज़ला ए वक़्त ने गिरने का दिन गिना दिया,

बरसात की चाह ने हमें क्या से क्या बना दिया ।
- - शांतनु सान्याल

06 अगस्त, 2025

अदृश्य हरकारा - -

शैल हो या अस्थि हर एक चीज़ का क्षरण है

निश्चित, किनारा जानता है नदी का रौद्र
स्वभाव, लहरों का आतंक फिर भी
वो बेफ़िक्र सा बना रहता है उसे
ज्ञात है कुछ पाने के लिए
कुछ खोना है लाज़िम,
सजल अनुभूति
हमें बहुधा
बना
जाती है मूक बधिर व अंध, वक्षःस्थल की
व्यथा नहीं लगती तब अप्रत्याशित,
शैल हो या अस्थि हर एक चीज़
का क्षरण है निश्चित । ये जान
कर भी हम दौड़े जाते
हैं कि क्षितिज
रेखा का
कोई
अस्तित्व नहीं, आँख लगते ही जगा जाता
है अदृश्य हरकारा, मोह के बीज पुनः
लालायित हो चले हैं अंकुरित
होने के लिए, हम छूना
चाहते हैं उस क्षण
आसमान सारा,
इसी एक
बिंदु
पर आ कर पुनः जी उठते हैं हम किंचित,
शैल हो या अस्थि हर एक चीज़ का
क्षरण है निश्चित ।
- - शांतनु सान्याल 

05 अगस्त, 2025

उस पार की दुनिया - -

जातिस्मर की तरह खोजता हूँ वो अलौकिक

द्वार, जहाँ विगत जीवन का था कभी
प्रसारित कारोबार, वो तमाम
पाप - पुण्य का हिसाब,
सत्य - मिथ्या का
पुनरावलोकन,
जानना
चाहता हूँ मृत्यु पूर्व के रहस्य, एक अंतहीन
यात्रा पूर्व जन्म के उस पार, जातिस्मर
की तरह खोजता हूँ वो अलौकिक
द्वार । भाग्यांश में कहीं आज
भी पीछा करते हैं पिछले
जनम के अभिशाप,
या हम जीते हैं
सीने में
लिए हुए अर्थहीन संताप, भटकते हैं आदि
मानव की तरह गुह कन्दराओं में
बेवजह, स्वनिर्मित अंधकार
में तलाशते हैं अंतरतम
की अखंड ज्योति,
दरअसल एक
असमाप्त
मायावी
स्वप्न
ख़ुद से बाहर हमें निकलने नहीं देता, लौट
आते हैं उसी जगह जातिस्मर की
तरह बारम्बार, जातिस्मर की
तरह खोजता हूँ
वो अलौकिक
द्वार ।
- - शांतनु सान्याल


04 अगस्त, 2025

महाशून्य से हो कर - -

मिट्टी के गुल्लक में बंद थे ख़्वाबों के मोहर,

टूटते ही बिखर गए मुद्दतों के भीगे धरोहर,

इंद्रधनु सा उभरे कभी जलप्रपात के ऊपर,
कांच की बूंदे रुकती नहीं हथेली में पलभर,

नेह के बादल उड़ चले हैं तितलियों के संग,
सुदूर द्वीप में सज चले हैं जुगनुओं के शहर,

रेशमी छुअन गुज़रती है देह प्राण से हो कर,
जी उठते हैं सुप्त कोश रात्रि के अंतिम पहर,

शिराओं से हो कर बहती है प्रणय गंध धारा,
मद्धम सुर में अंतर्ध्वनि गाएं गीत ठहर ठहर,

महाशून्य में बहते जाएं आलोक स्रोत के संग,
छोड़ जाएं सभी बंध अपनी जगह उसी डगर, ।
- - शांतनु सान्याल 

02 अगस्त, 2025

उतार की ओर - -

धुआं सा उठे है वादियों में बारिश थमने के बाद,

राहत ए जां मिले इश्क़ ए ख़ुमार उतरने के बाद,

मिलने को आए लोग जब याददाश्त जाती रही, फ़िज़ूल हैं दुआएं उम्र की दोपहर ढलने के बाद,

ख़्वाबों की रंगीन फिरकी हाथों में वो थमा गए,
आँखों में है नशा बारहा गिर के संभलने के बाद,

वो रहज़न था या कोई पैकर ए जादूगर पोशीदा,
होश में लौटे; दूर तक साथ उसके चलने के बाद,

बहुत मुश्किल है; गहराइयों का सही थाह करना, वक़्त नहीं लौटता रुख़ से कलई निकलने के बाद,
- - शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past