28 अगस्त, 2025

उसी जगह - -

कोई किसी का इंतज़ार नहीं करता फिर

भी लौटना पड़ता है उसी ठिकाने,
ज़माना कितना ही क्यूं न
बदल जाए ज़ेहन से
नहीं उतरते हैं
वही गीत
पुराने,
हर
चीज़ की है मुकर्रर ख़त्म होने की तारीख़,
मैंने तो अदा की है ज़िन्दगी को इक
अदद महसूल, तक़दीर में क्या
है ख़ुदा जाने, उम्र भर का
हिसाब मांगते हैं मेरे
चाहने वाले, तर्क
ए ताल्लुक़
के हैं
हज़ार बहाने, मुझे मालूम है बुज़ुर्गख़ाने
का पता, अपने ही घर में जब कोई
शख़्स हो जाए बेगाना, बाक़ी
चेहरे तब हो जाते हैं अपने
आप ही अनजाने, कोई
किसी का इंतज़ार
नहीं करता
फिर
भी लौटना पड़ता है उसी ठिकाने - - -
- - शांतनु सान्याल

23 अगस्त, 2025

मीठा एहसास - -

उतरती है धूप बालकनी को छू कर,

परछाइयों में रह जाते हैं कुछ
मीठे एहसास, दूर पहाड़ों
के ओट में सूरज डूब
चला, फिर एक
दिन डायरी
से गिर
चुका,
निकलने के बाद हल्का सा दर्द छोड़
जाता है उंगलियों में नन्हा सा
फाँस, परछाइयों में रह
जाते हैं कुछ मीठे
एहसास । नदी
का प्रवाह
सतत
खेलता है ध्वंस और निर्माण के मध्य,
इस पार हाहाकार उस पार जलोढ़
माटी का भंडार, बंजर से हो कर
खेत खलिहान, कभी उमस
भरे दिन कभी अनवरत
बरसता आसमान,
गंतव्य यथावत
कुहासामय
फिर भी
अज्ञात को पाने का अंतहीन प्रयास,
परछाइयों में रह जाते हैं कुछ
मीठे एहसास ।
- - शांतनु सान्याल

18 अगस्त, 2025

अनाश्रित - -

पुरातन अंध कुआँ सभी आवाज़ को अपने

अंदर कर जाता है समाहित, वो शब्द
जो जीवन को हर्षोल्लास दें बस
वही होते हैं प्रतिध्वनित,
दुःखद अध्याय रह
जाते हैं शैवाल
बन कर,
उभर
आते हैं उस के देह से जलज वनस्पति, वट
पीपल के असंख्य प्रशाखा, लोग भूल
जाते हैं क्रमशः उसका अस्तित्व,
वो ममत्व जो कभी करता
रहा अभिमंत्रित, पुरातन
अंध कुआँ सभी
आवाज़ को
अपने
अंदर कर जाता है समाहित । कालांतर में
कहीं कुछ शब्द बिखरे मिल जाएंगे
खण्डहरों के पत्थरों में, अज्ञात
लिपियों में लिखे रह जाते
हैं मनोव्यथाएं जिन्हें
कभी कोई पढ़
ही नहीं
पाता,
दबे रह जाती हैं जीर्ण पत्तों के नीचे अनगिनत
अप्रकाशित कविताएं, कुछ भावनाएं
होती हैं चिर अनाश्रित, पुरातन
अंध कुआँ सभी आवाज़
को अपने अंदर कर
जाता है
समाहित ।
- - शांतनु सान्याल





17 अगस्त, 2025

अन्तराग्नि - -

हर कोई सोचे अपने वृत्त में घुड़सवार, वक़्त

के हाथों घूमे काठ का हिंडोला, उम्र भर
का संचय जब निकले दीर्घ श्वास,
शून्य के सिवाय कुछ नहीं
होता अपने पास, तब
मुस्कुराता नज़र
आए अरगनी
से लटका
हुआ
ज़िन्दगी का फटेहाल झोला, वक़्त के हाथों
घूमे काठ का हिंडोला । घर से उड़ान
पुल हो कर वही हाट बाज़ार,
दैनिक शहर परिक्रमा,
पीठ सीधी करने
की अनवरत
कोशिश,
वही
टूट के हर बार बिखरने का सदमा, हज़ार
इतिकथाओं का मृत संदेश, वही
सीलनभरी दुनिया सरीसृपों
की तरह रेंगते परिवेश,
ऊपर से विहंगम
दृश्य नज़र
आए
मनोरम, वक्षस्थल के नीचे जले अनबुझ
ज्वाला, वक़्त के हाथों घूमे काठ
का हिंडोला ।
- - शांतनु सान्याल

16 अगस्त, 2025

उम्मीद की लकीरें - -

ख़्वाबों को मुसलसल सीने से लगाए रखिए,

सुबह होने तलक इस रात को जगाए रखिए,

उम्मीद की लकीरों में है छुपा जीवन सारांश,
दिल में यूँ तसव्वुर ए फ़िरदौस बनाए रखिए,

इस बज़्म की दिल फ़रेब हैं रस्म ओ रिवाज,
दहलीज़ पे इक शाम ए चिराग़ जलाए रखिए,

उम्रभर की वाबस्तगी थी लेकिन दोस्ती न हुई,
हाथ मिलाने का सिलसिला यूंही बनाए रखिए,

मुख़्तसर है इस जहां में दौर ए मेहमांनवाज़िश,
नक़ली गुलों से आशियां अपना सजाए रखिए,

कोई नहीं होता सफ़र ए ज़िन्दगी का हमसफ़र,
अकेले चलने का हौसला हमेशा बनाए रखिए,
- - शांतनु सान्याल

14 अगस्त, 2025

तूफ़ान के बाद - -

आसान नहीं तूफ़ान का पूर्वाभास,

पतंग और उंगलियों के मध्य
का सेतु ज़रूरी नहीं
हमेशा के लिए
बना रहे
निष्ठावान, मौसमी हवाओं का क्या,
उजाड़ने से पहले संभलने का
नहीं देता ज़रा भी अवकाश,
आसान नहीं तूफ़ान
का पूर्वाभास ।
नदी की
ख़ामोशी, लौह पुल से गुज़रती हुई
दूरगामी रेल, दोनों के मध्य
का समझौता ही हमें
बांधे रखता है
निःशर्त,
हम
बहना चाहते उन क्षणों में सुदूर उस
बिंदु में, जहाँ सागर और नदी
होते हैं आलिंगनबद्ध, एक
विस्मित ठहराव के
बाद देह को
मिलता
है एक
नया रूपांतरण, आवरण विहीन अंग
को तब रंग जाता है अपने रंग
में नीलाकाश, आसान
नहीं तूफ़ान का
पूर्वाभास ।
- - शांतनु सान्याल 

अंदरुनी दुनिया - -

कुछ अधूरे ख़्वाब निःशब्द आ कर

छोड़ जाते हैं मूक चीत्कार,
करवटों में ज़िन्दगी
ढूंढती है बिखरे
हुए अश्रुमय
मोती,
दूरस्थ समुद्र की लहरों में कहीं गुम है
हरित द्वीप का प्रकाश स्तम्भ, फिर
भी नहीं बुझती अंतरतम की
नील ज्योति, आहत
पंखों से जाना
है दिगंत
पार,
कुछ अधूरे ख़्वाब निःशब्द आ कर
छोड़ जाते हैं मूक चीत्कार ।
कुछ लम्हें हमारे मध्य
हैं ठहरे हुए जल -
प्रपात, भिगो
जाएंगे
एक
दिन अकस्मात, अभी आसमान है
मेघमय, इंद्रधनुष पुनः उभरेगा
रुक जाए ज़रा विक्षिप्त
बरसात, कौन भला
है अंदर तक
इस जहां
में मुतमइन, हर कोई ऊपर से दिखाता
है कुछ और, भीतर से है मगर
बेक़रार, कुछ अधूरे ख़्वाब
निःशब्द आ कर  छोड़
जाते हैं मूक
चीत्कार ।
- - शांतनु सान्याल

13 अगस्त, 2025

आसन्नकाल - -

जन्म सूत्र से गंतव्य का ठिकाना

नहीं मिलता, गर्भाग्नि विहीन
पाषाण, कभी नहीं
पिघलता ।

लोग लहूलुहान भटकते रहे
शरणार्थी बन कर, ग़र
ज्ञात होता बिन
काँटे काँटा
नहीं
निकलता ।

सद्भावना के जूलूस में
हथियारबंद निकले
वो, अगर हम
एक बने
रहते
तो देश नहीं सुलगता ।

न जाने कितने वर्ण भेदों ने हमें
निरंतर बिखेरा, आज को
बदले बिन आसन्नकाल
नहीं सुधरता ।
- - शांतनु सान्याल










12 अगस्त, 2025

बिम्ब के उस पार - -

अबूझ मन खोजता है जाने किसे प्रतिबिम्ब के उस पार, गिरते संभलते रात को खोलना

है सुबह का सिंह द्वार, परछाइयों
का नृत्य चलता रहता है उम्र
भर, दरख़्तों से चाँदनी
उतरती है लिए संग
अपने हरसिंगार,
किस ने देखा
है जन्म
जन्मांतर की दुनिया, अभी इसी पल जी लें
शताब्दियों की ज़िन्दगी, कल का कौन
करे इंतज़ार, समेट लो सभी चौरंगी
बिसात, ताश के घरों को है एक
दिन बिखरना अपने आप,
नीली छतरी के सिवा
कुछ नहीं बाक़ी,
जब टूट जाए
साँसों की
दीवार,
गिरते संभलते रात को खोलना है सुबह
का सिंह द्वार ।
- - शांतनु सान्याल

10 अगस्त, 2025

कुहासे का सफ़र - -

छाया निहित माया, स्वप्न के अंदर स्वप्न का

उद्गम, ठूँठ के जड़ से उभरे जीवन वृक्ष,
ढूंढे आकाश पथ में आलोक उत्स,
वक़्त का हिंडोला घूमे निरंतर,
दर्पण के भीतर हज़ार
दर्पण, कौन प्रकृत
कौन भरम,
स्वप्न के
अंदर स्वप्न का उद्गम । घर के अंदर अनेक
घर, हृदय तलाशे नाहक़ नया शहर,
अमर लता सम प्रणय पाश
देह बने मृत काठ, प्राण
खोजे अनवरत पुनर
जीवन का मधु
मास, एक
मोड़
पर जा रुके सितारों का जुलूस, अन्य मोड़
से निकले सुबह की धूप सहम सहम,
स्वप्न के अंदर स्वप्न
का उद्गम ।
- - शांतनु सान्याल

07 अगस्त, 2025

क्या से क्या बना दिया - -

भीगने की जुस्तजू ने इंतज़ार ए शब बढ़ा दिया,

बरसात की चाह ने हमें क्या से क्या बना दिया,

कभी हम से थी आबाद मुहोब्बत की बस्तियां,
वीरानगी है हर सिम्त जब से उसने भुला दिया,

कब गुज़रा सितारों का कारवां कुछ याद नहीं,
आधीरात से पहले भीगे जज़्बात ने सुला दिया,

संग कोयला से ही उभरता है ताब ए कोहिनूर,
सही वक़्त दर्पण ने अपने अक्स से मिला दिया,

बहोत फ़ख़्र था उसे अपनी ऊंची हवेलियों का,
ज़लज़ला ए वक़्त ने गिरने का दिन गिना दिया,

बरसात की चाह ने हमें क्या से क्या बना दिया ।
- - शांतनु सान्याल

06 अगस्त, 2025

अदृश्य हरकारा - -

शैल हो या अस्थि हर एक चीज़ का क्षरण है

निश्चित, किनारा जानता है नदी का रौद्र
स्वभाव, लहरों का आतंक फिर भी
वो बेफ़िक्र सा बना रहता है उसे
ज्ञात है कुछ पाने के लिए
कुछ खोना है लाज़िम,
सजल अनुभूति
हमें बहुधा
बना
जाती है मूक बधिर व अंध, वक्षःस्थल की
व्यथा नहीं लगती तब अप्रत्याशित,
शैल हो या अस्थि हर एक चीज़
का क्षरण है निश्चित । ये जान
कर भी हम दौड़े जाते
हैं कि क्षितिज
रेखा का
कोई
अस्तित्व नहीं, आँख लगते ही जगा जाता
है अदृश्य हरकारा, मोह के बीज पुनः
लालायित हो चले हैं अंकुरित
होने के लिए, हम छूना
चाहते हैं उस क्षण
आसमान सारा,
इसी एक
बिंदु
पर आ कर पुनः जी उठते हैं हम किंचित,
शैल हो या अस्थि हर एक चीज़ का
क्षरण है निश्चित ।
- - शांतनु सान्याल 

05 अगस्त, 2025

उस पार की दुनिया - -

जातिस्मर की तरह खोजता हूँ वो अलौकिक

द्वार, जहाँ विगत जीवन का था कभी
प्रसारित कारोबार, वो तमाम
पाप - पुण्य का हिसाब,
सत्य - मिथ्या का
पुनरावलोकन,
जानना
चाहता हूँ मृत्यु पूर्व के रहस्य, एक अंतहीन
यात्रा पूर्व जन्म के उस पार, जातिस्मर
की तरह खोजता हूँ वो अलौकिक
द्वार । भाग्यांश में कहीं आज
भी पीछा करते हैं पिछले
जनम के अभिशाप,
या हम जीते हैं
सीने में
लिए हुए अर्थहीन संताप, भटकते हैं आदि
मानव की तरह गुह कन्दराओं में
बेवजह, स्वनिर्मित अंधकार
में तलाशते हैं अंतरतम
की अखंड ज्योति,
दरअसल एक
असमाप्त
मायावी
स्वप्न
ख़ुद से बाहर हमें निकलने नहीं देता, लौट
आते हैं उसी जगह जातिस्मर की
तरह बारम्बार, जातिस्मर की
तरह खोजता हूँ
वो अलौकिक
द्वार ।
- - शांतनु सान्याल


04 अगस्त, 2025

महाशून्य से हो कर - -

मिट्टी के गुल्लक में बंद थे ख़्वाबों के मोहर,

टूटते ही बिखर गए मुद्दतों के भीगे धरोहर,

इंद्रधनु सा उभरे कभी जलप्रपात के ऊपर,
कांच की बूंदे रुकती नहीं हथेली में पलभर,

नेह के बादल उड़ चले हैं तितलियों के संग,
सुदूर द्वीप में सज चले हैं जुगनुओं के शहर,

रेशमी छुअन गुज़रती है देह प्राण से हो कर,
जी उठते हैं सुप्त कोश रात्रि के अंतिम पहर,

शिराओं से हो कर बहती है प्रणय गंध धारा,
मद्धम सुर में अंतर्ध्वनि गाएं गीत ठहर ठहर,

महाशून्य में बहते जाएं आलोक स्रोत के संग,
छोड़ जाएं सभी बंध अपनी जगह उसी डगर, ।
- - शांतनु सान्याल 

02 अगस्त, 2025

उतार की ओर - -

धुआं सा उठे है वादियों में बारिश थमने के बाद,

राहत ए जां मिले इश्क़ ए ख़ुमार उतरने के बाद,

मिलने को आए लोग जब याददाश्त जाती रही, फ़िज़ूल हैं दुआएं उम्र की दोपहर ढलने के बाद,

ख़्वाबों की रंगीन फिरकी हाथों में वो थमा गए,
आँखों में है नशा बारहा गिर के संभलने के बाद,

वो रहज़न था या कोई पैकर ए जादूगर पोशीदा,
होश में लौटे; दूर तक साथ उसके चलने के बाद,

बहुत मुश्किल है; गहराइयों का सही थाह करना, वक़्त नहीं लौटता रुख़ से कलई निकलने के बाद,
- - शांतनु सान्याल

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