सत्तर साल से उठाता रहा सूखे पत्तों का ढेर, कहीं कोई सुख जीवाश्म मिल जाए देर सबेर,
अंतिम चाह का क्या कीजै नीब टूटने के बाद,
तक़दीर के आगे नहीं चलता कोई भी हेर फेर,
एक अदद हमदर्द की तलाश करते रहे ताउम्र,
एक से छूटे कहीं तो हज़ार वेदनाएं लेते हैं घेर,
बिहान की आस में सीते रहे उम्मीद की चादर,
अपना ढहता ओसारा उगता सूरज ऊंचे मुँडेर,
अपने साध में लगे हैं सभी क्या साधु या स्वांग,
मूक अभिनय के हैं सभी पात्र अपने या हों ग़ैर,
- - शांतनु सान्याल