30 अप्रैल, 2025

लहू का रंग एक है - -

क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और हमारे

घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर, ये न भूलो
कि हर ज़ुल्म की सज़ा है
मुकर्रर, इसी ज़मीन
पे, इसी दौर में,
तुम छुप न
पाओगे
हर हाल में तुम्हें होना है रूबरू हाज़िर,
क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए
काफ़िर । वो ख़ुदा
हो नहीं सकता
जो इंसानों
में धर्म
खोजे,
वो
धर्म हो नही सकता जो धर्म के नाम पर
क़त्लेआम करवाए, वही मज़हब है
सब से ऊँचा जो हर एक इंसान
को सिर्फ़ इंसान सोचे, जो
सच्चा है वही होता है
जग जाहिर, क्या
तुम्हारे ज़ख्म
है इन्सानी
और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर ।
- - शांतनु सान्याल

29 अप्रैल, 2025

आग्नेय आह्वान - -

सीमांत के उस पार है बच्चे का पिता

इस पार आंसू बहाती माँ, दर्द
तेरा - मेरा काश धर्म नहीं
पूछता, तुम्हारा ख़ुदा
है महान तो मेरा
भी सृष्टिकर्ता
है शक्तिमान,
ख़ून की
होली
खेलने की चाहत में कहीं तेरा अस्तित्व
न बन जाए मशान, जो नफ़रत की
बुनियाद पर करना चाहे सारे
ब्रह्माण्ड में राज, उसका
भी एक दिन होता
है आवारा
श्वान
रूपी अवसान, अंतर्निहित शत्रु का पता
करना होता है कठिन, दीमक की
तरह जो कर जाते हैं मानचित्र
को खोखला, बाहर के
दुश्मन को फ़तह
करना है बहुत
आसान,
अब
उठो भी गहरी नींद से जाग कि माँ भारती
का रक्तरंजित देह तुम्हें दर्द से है
पुकारता, देश के ख़ातिर
देना है अपने प्राणों
का बलिदान ।
- - शांतनु सान्याल

19 अप्रैल, 2025

प्रश्न चिन्हित अस्तित्व - -

रक्तिम सीमांत में जलते हुए मठ मंदिर,

निरीह लोगों का पलायन, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष,
अश्रुझरित आंखें पूछती हैं
उनका आख़िर दोष
क्या है, कहाँ चले
गए मुहोब्बत
के दुकान
वाले,
किस पर यक़ीन करे जब पड़ौसी ही लूट
ले घर अपना, अपने ही देश में हो
जाएं शरणार्थी, गांव जल रहे
हैं शहर हैं धुआं धुआं,
मानवता का दम
भरने वाले
छुपे बैठे
हैं जाने
कहाँ,
क्या यही है मेरा देश तुम्हारा देश, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष ।
जिन पर है सुरक्षा का दायित्व
वही धर्मान्धों के मध्य खड़े
हो कर उनका हौसला
बढ़ा रहें हैं, सत्ता
मोह में चूर
हो कर
ग़रीब
सनातनियों का घर जला रहे हैं, वही जयचंद
की भूमिका निभा रहे हैं, हज़ार ग़ज़नवियों
को बुला रहे हैं, ताकि उनका सिंहासन
सलामत रहे, काश हम एकता के
सूत्र में बंध पाते, अपने ही
देश में शांति से जी
पाते, काश
उतार
फेंकते राजनायकों के छद्म भेष, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष ।
- - शांतनु सान्याल 

18 अप्रैल, 2025

अनुयायी - -

सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन, सहस्त्र फूल हैं

सिरहाने, ये और बात है कि ख़ाली जेब
ढूंढते हैं जीने के बहाने, अहाते का
उम्रदराज़ नीम तकता है मुझे
बड़ी हैरत से, आख़िर
क्या है उसके
दिल में
वही
जाने, सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन, सहस्त्र
फूल हैं सिरहाने । हमसफ़र मेरी कहती
है रिश्तों की डोर ताने रक्खो, घुट्टी
में उसने सीखा है वृश्चिक
मातृत्व का मंत्र,
निःस्व हो
जाने
का
सुख, मैं भी चल पड़ता हूँ उसी पथ में एक
अनुयायी बन अपना दायित्व निभाने,
सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन,
सहस्त्र फूल हैं सिरहाने ।
- - शांतनु सान्याल 

17 अप्रैल, 2025

निवृत्त भूमिका - -

रिश्तों के रंग बिरंगे लिफ़ाफ़े अक्सर

खोल कर देखता हूँ गोखुर झील,
टीले, घाटी सब हैं पूरी तरह
से सैलाब में डूबे हुए,
मृत किनारों को
मिल जाते
हैं नए
वारिसदार, मानचित्र के किसी एक
अस्पष्ट बिंदु पर विस्मृत पड़ा
रहता है खंडहरनुमा दिल
का डाकघर, ऊसर
भूमि के रास्ते
कोई नहीं
चलता
दूर
तक, बाँसवन में है अभी तक मौजूद
आदिम कुछ दीवार, मृत किनारों
को मिल जाते हैं नए
वारिसदार । कौन
संभाले रखता
है पुराने
ख़त,
बेवजह जो जगह घेरते हों, लोग बड़ी
सहजता से फाड़ कर फेंक देते हैं
शब्द बंधन, दूर ध्वनि से भी
कर जाते हैं किनाराकशी,
बहुत आसान है कहना
रॉन्ग नम्बर ! क्या
फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हारे
होने
या
न होने से, तुम निभा चुके हो अपना
किरदार, मृत किनारों को मिल
जाते हैं नए वारिसदार ।
- - शांतनु सान्याल


15 अप्रैल, 2025

हिमनद के नीचे - -

एक लापता स्रोत, दूर से थम थम कर

आती है जिसकी मद्धम आवाज़,
कोहरे में धुंधले से नज़र आते
हैं कुछ अल्फ़ाज़, किसी
अज्ञात स्वरलिपि में
ज़िन्दगी तलाशती
गुज़िश्ता रात
का टूटा
हुआ
साज़, चाँदनी रात की गहराइयों में हैं
समाधिस्थ असंख्य प्रणय इति -
कथाएं, सामने है खुला
आसमान लेकिन
याद नहीं फ़न
ए परवाज़,
बहुत
कुछ
अपने इख़्तियार में नहीं होता, हर एक
ख़ुशी ज़रूरी नहीं हो उम्रदराज़,
ऊंघते दरख़्तों से हवा करती
सरगोशी, चाँद भी है कुछ
उदास, ये मुमकिन नहीं
उम्र भर कोई बना
रहे ज़िन्दगी के
आसपास,
आँख
बंद
होने के बाद भी काश, बना रहे कोई रूह
ए हमराज़, एक लापता स्रोत, दूर से
थम थम कर आती है जिसकी
मद्धम आवाज़ - -
- - शांतनु सान्याल

14 अप्रैल, 2025

पुनर्मिलन की प्रतिश्रुति - -

द्विधाहीन हो लौट जाओ अपने परिधि के अंदर,

अभी तपने दे मुझे किसी जनशून्य धरा में
आदिम उल्का पिंड की तरह, बसने दे
हृदय तट पर हिमयुग के उपरांत
का नगर, द्विधाहीन हो लौट
जाओ अपने परिधि
के अंदर । उभरने
दे अंतर्मन से
सुप्त नदी
का
विलुप्त उद्गम, सरकने दे मोह का यवनिका दूर
तक, कोहरे में ढके हुए हैं अनगिनत संभ्रम,
न छुओ इस देह को अतृप्त चाह के
वशीभूत, स्वप्न के सिवाय कुछ
भी नहीं है ये आभासी
समंदर, द्विधाहीन
हो लौट जाओ
अपने परिधि
के अंदर ।
इस
सुलगते सतह पर हैं असंख्य नागफणी के जंगल,
शिराओं में बहते हैं जिनके बूंद बूंद हलाहल,
बहुत कठिन है इस पथ से गुजरना, लौट
जाओ यहीं से, सहस्त्र योजन दूर है
क्षितिज पार का वो अनजाना
शहर, द्विधाहीन हो
लौट जाओ
अपने
परिधि के अंदर । जन्म जन्मांतर के इस सांप
सीढ़ी का अंत नहीं निश्चित, कभी शीर्ष
पर खिलती है नियति सोलह सिंगार
लिए, कभी वसुधा के गोद में
पड़े रहते हैं सपने सूखे
पुष्पों के हार लिए,
फिर भी सूखती
नहीं हृदय
सरिता,
बहती
जाती है अनवरत मिलन बिंदु की ओर, मौन
मनुहार लिए, लौट आना उस दिन जब
बुझ जाए अग्निमय बवंडर,अभी
द्विधाहीन हो लौट जाओ
अपने परिधि के
अंदर ।।
- - शांतनु सान्याल

12 अप्रैल, 2025

कुछ पल और साथ रहते - -

उत्सव का कोलाहल थम जाता है जोश

का ज्वार उतरते ही, अंदर महल की
दुनिया ढूँढती है चाँदनी रात में
गुमशुदा सुकूँ का ठिकाना,
उठ जाती है तारों की
महफ़िल भी शेष
पहर, बुझ
जाते
हैं सभी चिराग़ अंधकार के पिघलते ही,
उत्सव का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार उतरते ही ।
बिखरे पड़े हैं बेतरतीब
से गुज़रे पलों के
ख़ूबसूरत
मोती,
बस एहसास के चमक दिल में रहे बाक़ी,
क्षितिज पार कहीं आज भी खिलते
हैं अभिलाष के नाज़ुक से फूल,
हृदय कमल के बहुत अंदर
रहती है सुरभित कोई
ज्योति, मालूम है
मुझे नदी का
अपने आप
सिमट
जाना, परछाई भी संग छोड़ जाती है
चाँदनी रात के ढलते ही, उत्सव
का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार
उतरते ही ।
- - शांतनु सान्याल




08 अप्रैल, 2025

रिक्त अंचल - -

दिल की गहराइयों में है जमा अगाध जलधार,

रेत को हटा कर, तुम अंजुरी कभी भर न पाए,
अजस्र आँचल बिखरे पड़े हैं धरातल के ऊपर,
आसक्ति के वशीभूत ख़ुश्बू ज़मीं पे झर न पाए,
अदृश्य परिधि के अंदर गढ़ते रहे अपनी दुनिया,
ओस बन के नभ से नीचे निःशर्त बिखर न पाए,
मंदिर कलश अनछुआ रहा अभिलाष बढ़े सही,
अनेक गंतव्य फिर भी सत्य पथ से गुज़र न पाए,
अन्तःप्रवाह कुछ और था बाह्यप्रकाश झिलमिल,
पद्मपात था निर्मल पारदर्शी नेह बूँद ठहर न पाए,
नियति का रेखागणित, अपनी जगह था परिपूर्ण,
मोतियों के हैं अंबार फिर भी अंचल भर न पाए ।
- - शांतनु सान्याल

05 अप्रैल, 2025

कहाँ हूँ मैं - -

एक अद्भुत अनुभूति से गुज़र रहा हूँ मैं,

अपनी ही परछाई से जैसे डर रहा हूँ मैं,

यूँतो मुस्कुराते हुए लोग हाथ मिलाते हैं,
डूबते दिल की गहराई से उभर रहा हूँ मैं,

रात भर सोचता रहा रुक ही जाऊँ यहीं,
कभी एक सायादार गुलमोहर रहा हूँ मैं,

राजपथ के दोनों तरफ़ हैं विस्मित चेहरे,
आँखों में फिर कोई ख़्वाब भर रहा हूँ मैं,

न कोई जुलूस है, न ही विप्लवी शोरगुल,
जनारण्य के मध्य, एक खंडहर रहा हूँ मैं,

धुँधली साया मां की आवाज़ से बुलाए है,
घर लौट जाऊं, मुद्दतों दर ब दर रहा हूँ मैं,

यक़ीन नहीं होता अपनी ही याददाश्त पर,
ये वही जगह है दोस्तों कभी इधर रहा हूँ मैं,
- - शांतनु सान्याल


03 अप्रैल, 2025

विकल्प विहीन - -

दो चकमक पत्थरों के बीच की चिंगारी,दूर तक जला जाती है स्मृति नगर सारी,

पड़े रहते हैं कुछ एक अधजले अनुभूति,
फिर भी जीवन का चलना रहता है जारी,

अनवरत चलायमान है देह का पुनर्वासन,
एकमेव जन्म में, हज़ार जन्मों की तैयारी,

आसपास बिखरे पड़े हैं असंख्य आत्माएं,
सहज नहीं कहना, कब आए अपनी बारी,

कागज़ी फूल ही सही ये रिश्तों की दुनिया,
गन्धहीन कोषों में बसता है प्रणय भिखारी,

दीवार से लटकी पड़ी है एक बूढ़ी बंद घड़ी,
वक़्त का ऋण चुकाना पड़ता है बहुत भारी,

कोई विकल्प काम नहीं आता अंतिम पहर,
सामने खड़े हैं जब धर्मराज दंड गदा धारी ।
- - शांतनु सान्याल

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