निष्प्राण आईना तलाशता है इक
अदद चेहरा, मुखौटों के इस
शहर में अब ख़ालिस
अक्स का पता
कोई नहीं
जानता,
दूर
तक है रेत के नीचे रूहों की बस्ती,
दिन है यहाँ गूंगा और रात
जैसे हो सदियों से बहरा,
निष्प्राण आईना
तलाशता है
इक
अदद चेहरा। मृत्यु प्रमाण पत्र ले
कर भी भला कोई क्या करेगा,
हमारे वसीयत में कोई
चाँद सितारा न
था, बदल
दो वो
सभी तथाकथित मोक्ष के रास्ते,
कहने को सभी थे मेरे अपने,
हक़ीक़त में लेकिन कोई
दूर तक भी हमारा
न था, उभर
आएंगे
सभी
सत्य एक दिन, भुरभुरी ज़मीन
पर, सैलाब का पानी नहीं
होता है गहरा, निष्प्राण
आईना तलाशता है
इक अदद
चेहरा।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 मई, 2021
22 मई, 2021
धुंध के उस पार - -
उम्मीद के आलोक स्रोत कभी नहीं बुझते
दिन के उजाले में भी ये होते हैं मौजूद,
ये और बात है कि उन्हें हम देख
नहीं पाते, आकाश का सीना
है गहनतम, कहीं न
कहीं ज़रूर मिल
जाएंगे तुम
से हम
यूँ
ही आते जाते। कहने को डूबे हैं सितारे,
इस क्षितिज के अतिरिक्त भी हैं
कई अनजाने दिगंत की
सीमाएं, कहाँ जा कर
रुके इस जीवन
की नैया,
सब
कुछ है मुट्ठी बंद, बहते जाना है निरंतर
नियति के सहारे, कहने को डूबे हैं
सितारे, संभवतः धुंध के उस
पार है कोई जुगनुओं का
प्लावित द्वीप, और
नव सृजन के
सम्भाव्य
ढेर
सारे, कहने को डूबे हैं सितारे - - - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
दिन के उजाले में भी ये होते हैं मौजूद,
ये और बात है कि उन्हें हम देख
नहीं पाते, आकाश का सीना
है गहनतम, कहीं न
कहीं ज़रूर मिल
जाएंगे तुम
से हम
यूँ
ही आते जाते। कहने को डूबे हैं सितारे,
इस क्षितिज के अतिरिक्त भी हैं
कई अनजाने दिगंत की
सीमाएं, कहाँ जा कर
रुके इस जीवन
की नैया,
सब
कुछ है मुट्ठी बंद, बहते जाना है निरंतर
नियति के सहारे, कहने को डूबे हैं
सितारे, संभवतः धुंध के उस
पार है कोई जुगनुओं का
प्लावित द्वीप, और
नव सृजन के
सम्भाव्य
ढेर
सारे, कहने को डूबे हैं सितारे - - - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
20 मई, 2021
पुनर्यात्रा - -
जो खो गए समय स्रोत में उनका रंज
अपनी जगह, ज़िन्दगी को है फिर
खिलना गुलमोहर की तरह,
वो दिन जो अब हैं देह
विहीन आलिंगन,
उन्हें रख लें
बंद हृद
संदूक में, दर्द की सीमा नहीं होती - -
फिर भी कुछ तो छुपा रहता है
बिहान के कुहुक में, एक
अज्ञात सा मर्म जगा
जाता है जीवन
को, राह
चलते किसी अप्रत्याशित ठोकर की -
तरह, ज़िन्दगी को है फिर खिलना
गुलमोहर की तरह - -
* *
- - शांतनु सान्याल
अपनी जगह, ज़िन्दगी को है फिर
खिलना गुलमोहर की तरह,
वो दिन जो अब हैं देह
विहीन आलिंगन,
उन्हें रख लें
बंद हृद
संदूक में, दर्द की सीमा नहीं होती - -
फिर भी कुछ तो छुपा रहता है
बिहान के कुहुक में, एक
अज्ञात सा मर्म जगा
जाता है जीवन
को, राह
चलते किसी अप्रत्याशित ठोकर की -
तरह, ज़िन्दगी को है फिर खिलना
गुलमोहर की तरह - -
* *
- - शांतनु सान्याल
13 मई, 2021
भावशून्य गंगा - -
हर तरफ है मौन मृत्यु जुलूस, गूंगी एहसास,
दूर तक रुद्ध विलाप, फिर भी ज़िन्दगी
दौड़ती है आख़री सांस तक, गली
कूचों से निकल कर, नगर
सीमान्त के उस पार,
कहीं किसी मोड़
पर शायद
मिल
जाए वो अदृश्य पहरेदार। भावशून्य गंगा - -
तकती है सेतु के प्राचीर को, अभी अभी
कोई फेंक गया है किसी अपने एक
आत्मीय को, कञ्चन देह का
मूल्य है माटी, फिर भी
निष्ठुरता का अंत
नहीं, अनुराग
प्रेम सब
कुछ
प्लावित हैं चिथड़ों में सारमेयों के बीच - -
कालाधन संचित करने में लगे हैं
धर्म कर्म के ठेकेदार, कहीं
किसी मोड़ पर शायद
मिल जाए वो
अदृश्य
पहरेदार, जो कर पाए इस जग का - - -
पुनरुद्धार - -
* *
- - शांतनु सान्याल
दूर तक रुद्ध विलाप, फिर भी ज़िन्दगी
दौड़ती है आख़री सांस तक, गली
कूचों से निकल कर, नगर
सीमान्त के उस पार,
कहीं किसी मोड़
पर शायद
मिल
जाए वो अदृश्य पहरेदार। भावशून्य गंगा - -
तकती है सेतु के प्राचीर को, अभी अभी
कोई फेंक गया है किसी अपने एक
आत्मीय को, कञ्चन देह का
मूल्य है माटी, फिर भी
निष्ठुरता का अंत
नहीं, अनुराग
प्रेम सब
कुछ
प्लावित हैं चिथड़ों में सारमेयों के बीच - -
कालाधन संचित करने में लगे हैं
धर्म कर्म के ठेकेदार, कहीं
किसी मोड़ पर शायद
मिल जाए वो
अदृश्य
पहरेदार, जो कर पाए इस जग का - - -
पुनरुद्धार - -
* *
- - शांतनु सान्याल
11 मई, 2021
अंतरतम का शब्दकोश - -
न जाने कितनी नदियां बहती हैं निःशब्द
वक्षस्थल के नीचे, सभी विष एक
दिन हो जाएंगे प्रभावहीन,
जीवन हो जाएगा
क्रमशः मृत्यु
से भय -
मुक्त, न जाने किस रूपकथा की बात -
करते हो, इस दुनिया में कोई भी
नहीं रहता, उम्र भर के लिए
अनुरक्त। नदी बही
जाती है शब्दहीन
उद्गम से ले
कर सुदूर
मुहाने
तक, पड़े रहते हैं किनारे पर अनगिनत
किस्से कहानियां, वट की जटाओं
से खेलते हैं जल भंवर, और
कभी गांव, घाट, मंदिर,
सेतु, सभी कुछ
कुहासे में
डूबे से
आते हैं नज़र, नदी को है बहना निरंतर,
एक अदृश्य रेखा है ये जिजीविषा,
बढ़ती जाती है महासिंधु की
ओर, किए जाती है मरु
तटबंधों को यूँ ही,
परितृप्त, सभी
विष एक
दिन हो
जाएंगे प्रभावहीन, जीवन हो जाएगा
क्रमशः मृत्यु से भय मुक्त।
* *
- - शांतनु सान्याल
वक्षस्थल के नीचे, सभी विष एक
दिन हो जाएंगे प्रभावहीन,
जीवन हो जाएगा
क्रमशः मृत्यु
से भय -
मुक्त, न जाने किस रूपकथा की बात -
करते हो, इस दुनिया में कोई भी
नहीं रहता, उम्र भर के लिए
अनुरक्त। नदी बही
जाती है शब्दहीन
उद्गम से ले
कर सुदूर
मुहाने
तक, पड़े रहते हैं किनारे पर अनगिनत
किस्से कहानियां, वट की जटाओं
से खेलते हैं जल भंवर, और
कभी गांव, घाट, मंदिर,
सेतु, सभी कुछ
कुहासे में
डूबे से
आते हैं नज़र, नदी को है बहना निरंतर,
एक अदृश्य रेखा है ये जिजीविषा,
बढ़ती जाती है महासिंधु की
ओर, किए जाती है मरु
तटबंधों को यूँ ही,
परितृप्त, सभी
विष एक
दिन हो
जाएंगे प्रभावहीन, जीवन हो जाएगा
क्रमशः मृत्यु से भय मुक्त।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 मई, 2021
कदाचित फिर मिलें - -
एकाकी जीवन चला जा रहा है
सुदूर, न जाने कहां किस
की चाह में, बिखरे
पड़े हैं असंख्य
कांच के
पल
ख़ामोश, ज़िन्दगी की राह में, -
सुनसान मोड़ पर कहीं
वो आज भी है
मुंतज़िर,
भीगे
ज़िल्द में हो जैसे कोई सांझ -
रात की पनाह में, एकाकी
जीवन चला जा रहा है
सुदूर, न जाने
कहां किस
की चाह
में।
सभी मेघ उड़ जाएंगे बिहान से
पहले, ख़्वाब के मख़मली
सिलवटों में कहीं रह
जाएंगे कुछ मौन
स्पर्श, कुछ
अंतरंग
शब्द,
शायद, फिर मिले कहीं किसी
और गहनतम अथाह में,
एकाकी जीवन चला
जा रहा है सुदूर,
न जाने
कहां
किस की चाह में।
* *
- - शांतनु सान्याल
सुदूर, न जाने कहां किस
की चाह में, बिखरे
पड़े हैं असंख्य
कांच के
पल
ख़ामोश, ज़िन्दगी की राह में, -
सुनसान मोड़ पर कहीं
वो आज भी है
मुंतज़िर,
भीगे
ज़िल्द में हो जैसे कोई सांझ -
रात की पनाह में, एकाकी
जीवन चला जा रहा है
सुदूर, न जाने
कहां किस
की चाह
में।
सभी मेघ उड़ जाएंगे बिहान से
पहले, ख़्वाब के मख़मली
सिलवटों में कहीं रह
जाएंगे कुछ मौन
स्पर्श, कुछ
अंतरंग
शब्द,
शायद, फिर मिले कहीं किसी
और गहनतम अथाह में,
एकाकी जीवन चला
जा रहा है सुदूर,
न जाने
कहां
किस की चाह में।
* *
- - शांतनु सान्याल
08 मई, 2021
अंध गहराई - -
मृत नदी की तरह पड़ी रहती हैं अचल
स्मृतियां, सूख जाते हैं आर्तनाद,
रेत के टापुओं से झांकते
हैं पथरीले विषाद,
किनारों के
धूसर
पेड़ तलाशते हैं अपनी खोयी हुई सभी
परछाइयां, मृत नदी की तरह पड़ी
रहती हैं अचल स्मृतियां।
राख की तरह बिखरे
पड़े हैं दूर तक
दीर्घ जीने
के मधु
अभिलाष, आज मैं हूँ तुम्हारे दिल के
बेहद क़रीब, ज़रूरी नहीं उम्र भर
तुम मुझे रखो यूँ ही अपने
पास, कौन आए और
कौन लौट जाए,
बूढ़े बरगद
को कुछ
भी
फ़र्क़ नहीं पड़ता, विहंगों का कलरव -
यथारीति रहता है वितानों पर,
मुख़्तसर होती हैं ज़िन्दगी
की सभी तन्हाइयां,
मृत नदी की
तरह पड़ी
रहती
हैं अचल स्मृतियां, वक़्त भर जाएगा
लम्हा लम्हा, दर्द की अंधी सभी
गहराइयां - -
* *
- - शांतनु सान्याल
स्मृतियां, सूख जाते हैं आर्तनाद,
रेत के टापुओं से झांकते
हैं पथरीले विषाद,
किनारों के
धूसर
पेड़ तलाशते हैं अपनी खोयी हुई सभी
परछाइयां, मृत नदी की तरह पड़ी
रहती हैं अचल स्मृतियां।
राख की तरह बिखरे
पड़े हैं दूर तक
दीर्घ जीने
के मधु
अभिलाष, आज मैं हूँ तुम्हारे दिल के
बेहद क़रीब, ज़रूरी नहीं उम्र भर
तुम मुझे रखो यूँ ही अपने
पास, कौन आए और
कौन लौट जाए,
बूढ़े बरगद
को कुछ
भी
फ़र्क़ नहीं पड़ता, विहंगों का कलरव -
यथारीति रहता है वितानों पर,
मुख़्तसर होती हैं ज़िन्दगी
की सभी तन्हाइयां,
मृत नदी की
तरह पड़ी
रहती
हैं अचल स्मृतियां, वक़्त भर जाएगा
लम्हा लम्हा, दर्द की अंधी सभी
गहराइयां - -
* *
- - शांतनु सान्याल
07 मई, 2021
मुस्कुराना कभी न भूलें - -
बर्फ़ का दरिया है एक दिन पिघल
जाएगा, समय का सिक्का
उछलता रहता है
अपनी जगह
आज का
दिन
शायद न हो मेरे लिए कोई ख़ास,
मुझे यक़ीन है कि कल वो
ज़रूर कुछ ख़ास ख़बर
ले के आएगा, बर्फ़
का दरिया है
एक दिन
पिघल
जाएगा। विस्मित आरशी है तो
रहे अक्स मुस्कुराना कैसे
भूले, अतीत के फेंके
हुए बुनियादों पर,
फिर अनेक
मंज़िलें
उभर
आएंगी, लड़खड़ाता हुआ आज
का दिन साँझ गहराते ही
संभल जाएगा, बर्फ़
का दरिया है
एक दिन
पिघल
जाएगा, स्तूपाकार इस दर्द को
रहने दो यूँ ही भूमिगत,
जितना उत्खनन
करोगे उतना
ही देह -
प्राण
से बाहर दूर तक बिखर जाएगा,
समय का मरहम किसी एक
का नहीं है पेटेंट, ज़रा
इंतज़ार करो इस
दर्द से जीवन
एक रोज़
संभल
जाएगा, बर्फ़ का दरिया है एक
दिन पिघल जाएगा - -
* *
- - शांतनु सान्याल
जाएगा, समय का सिक्का
उछलता रहता है
अपनी जगह
आज का
दिन
शायद न हो मेरे लिए कोई ख़ास,
मुझे यक़ीन है कि कल वो
ज़रूर कुछ ख़ास ख़बर
ले के आएगा, बर्फ़
का दरिया है
एक दिन
पिघल
जाएगा। विस्मित आरशी है तो
रहे अक्स मुस्कुराना कैसे
भूले, अतीत के फेंके
हुए बुनियादों पर,
फिर अनेक
मंज़िलें
उभर
आएंगी, लड़खड़ाता हुआ आज
का दिन साँझ गहराते ही
संभल जाएगा, बर्फ़
का दरिया है
एक दिन
पिघल
जाएगा, स्तूपाकार इस दर्द को
रहने दो यूँ ही भूमिगत,
जितना उत्खनन
करोगे उतना
ही देह -
प्राण
से बाहर दूर तक बिखर जाएगा,
समय का मरहम किसी एक
का नहीं है पेटेंट, ज़रा
इंतज़ार करो इस
दर्द से जीवन
एक रोज़
संभल
जाएगा, बर्फ़ का दरिया है एक
दिन पिघल जाएगा - -
* *
- - शांतनु सान्याल
04 मई, 2021
सूखी ज़मीन के अंदर - -
दूर तक है विस्तीर्ण बालूमय किनारा,
सूखी नदी के मोड़ पर कहीं आज
भी बहती है कोई लुप्त धारा,
कुछ स्मृतियां कदाचित
हों पुनर्जीवित, कुछ
जीवाश्म सुख
पुनः हों
सत्य
में परिवर्तित, फिर बसाएं विध्वस्त -
सपनों का संसार, करें श्रावणी
हवाओं का आवाहन, तप्त
हृदयों को दें उम्मीद
का सहारा, सूखी
नदी के मोड़
पर कहीं
आज
भी बहती है कोई लुप्त धारा। सिर्फ़ -
तुम ही नहीं हो यहाँ नियति के
शिकार, जीवन पथ में है
कभी अप्रत्याशित
विजय, और
कभी
अनचाही हार, अभी तक है मौजूद -
कोई अदृश्य सेतु हमारे दरमियां,
नश्वर जगत हो कर भी
बहुत कुछ कहता
है वो नीला
आसमां,
सब
कुछ लूटा के भी जीवन नहीं होता
है सर्वहारा, न टूट पाए कभी
उम्मीद का डोर हमारा,
सूखी नदी के मोड़
पर कहीं आज
भी बहती
है कोई
लुप्त धारा।
* *
- - शांतनु सान्याल
सूखी नदी के मोड़ पर कहीं आज
भी बहती है कोई लुप्त धारा,
कुछ स्मृतियां कदाचित
हों पुनर्जीवित, कुछ
जीवाश्म सुख
पुनः हों
सत्य
में परिवर्तित, फिर बसाएं विध्वस्त -
सपनों का संसार, करें श्रावणी
हवाओं का आवाहन, तप्त
हृदयों को दें उम्मीद
का सहारा, सूखी
नदी के मोड़
पर कहीं
आज
भी बहती है कोई लुप्त धारा। सिर्फ़ -
तुम ही नहीं हो यहाँ नियति के
शिकार, जीवन पथ में है
कभी अप्रत्याशित
विजय, और
कभी
अनचाही हार, अभी तक है मौजूद -
कोई अदृश्य सेतु हमारे दरमियां,
नश्वर जगत हो कर भी
बहुत कुछ कहता
है वो नीला
आसमां,
सब
कुछ लूटा के भी जीवन नहीं होता
है सर्वहारा, न टूट पाए कभी
उम्मीद का डोर हमारा,
सूखी नदी के मोड़
पर कहीं आज
भी बहती
है कोई
लुप्त धारा।
* *
- - शांतनु सान्याल
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
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