दूर तक फैला रहा इक ख़ालीपन, वो क्या
गए, ख़ला में भटकती रही ज़िन्दगी,
वीरां से हैं कहकशां के किनारे,
चाँद मद्धम सा, बेरौनक
से सितारे, इक
आग अन -
बुझी
सी, यूँ सुलगती रही ज़िन्दगी, उतरती है
रात बदन ख़स्ता, कोह शोलावर
से, अहसास ज़ख़्मी, कभी
जलती कभी बुझती
रही ज़िन्दगी,
न पूछ
किस तरह से सांसों ने की हमसे बेवफ़ाई,
कभी सहरा, कभी संग ख़ारदार
हर लम्हा उलझती रही
ज़िन्दगी - -
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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