लापता मेरा वजूद
ये और बात थी कि उसने कभी दिल
से कहा ही नहीं, हर लफ़्ज़ में
इक नपातुला सा अंदाज़,
वो शख्स अक्सर
भंवरजाल में
मुझे डुबो गया, उस ख़्वाब में थीं न जाने
कितनी सलवटें, ज़िन्दगी चाह कर
भी कोरा कागज़ हो न सकी,
लिख गए मौसम मेरे
दर पे, मेरी ही
गुमनामी
के इश्तेहार, कि बेघर हूँ आजकल अपने
ही घर में, ये हस्र, मुझसे पूछता है
मेरी मासूमियत का सबब,
कैसे कहूँ कि बाहोश
ही मैंने दस्तख़त
की थी,
कभी उसके तहरीरे जज़्बात पर, बेख़ुदी में
शायद - - -
भावनाओं की बेहतर अभिव्यक्ति ....हर किसी का दिल कहता है एक आवाज में अपनी बात .....!
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