काश वो मिल जाये
निःशब्द, वो गुज़र गया मेरे पहलू
से होकर यूँ ; जैसे हाथों से
छूट जाय किसी की
उँगलियाँ डूबने
से पहले,
मेरी सांसों के साहिल पर था वो खड़ा दूर !
आवाज़ मेरी लौट आई मजरूह
हमेशा की तरह; वो
शायद था
अपनी
ही जहाँ में मसरूफ़, बहोत चाहा कि छू लूँ
उसे, लेकिन उस भंवर से निकलना
न था आसां, न उसने ही हाथ
बढ़ाया, न ज़िन्दगी ने
साथ निभाया,
वो शख्स
अँधेरे में आख़िर गुम होता गया; बहोत
दूर - - -
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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