13 मई, 2012

जिस्म ओ रूह

 
अब फ़र्क़ नहीं पड़ता दिल को 
किसी के नज़र अंदाज़ का;
हम छोड़ आये सभी 
मरहले दर्दो 
ग़म के
बहोत दूर, उनकी  तसल्ली
में  हैं ; अफ़सानों की 
इक लम्बी सी 
कतार,  
जी रहें हैं; अब तक ज़हर -
खाने के बाद, रख
जाओ कोई भी 
गुल, दिल 
चाहे 
जो, अब हमें कुछ भी नहीं  
चाहिए, इतना कुछ 
पाने के बाद,
वो चाहत 
जो 
जान से गुज़रे, मुमकिन 
कहाँ दोबारा उसका 
उभरना, ये शै
है; बहोत 
क़ातिल उभरती है इक बार
जिस्म ओ रूह लेने 
के बाद - - 
 - शांतनु सान्याल  



 

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