अभिनव अंगीकार
प्रश्न चिन्हों को समेटे, कभी दहलीज और
कभी अहाते में, कदाचित खड़ा रहा
प्रखर धूप हो या चांदनी रात,
खुले वक्षस्थल में लिए
समय चक्र
निशान,
कोई निवृत आनंद हो जैसे युगों से प्रतीक्षारत, कर
चला हो नीरव अनुसन्धान, कभी आमने
सामने, कभी अदृश्य दर्पण की
तरह सतत अनुसरण, मैं
चाह कर भी उसे
अपरिग्रह
कर न सका, वो मेरे अस्तित्व के रास्ते कब व कैसे
अंतर्मन की गहराई लांघता रहा, हर पल मेरा
अहम, अभिमान, ईर्ष्या का दहन करता
रहा मुझे पता ही न चला, कोई तो
है,जो छद्म रूप लिए उसे कर
जाता है,सक्रीय और
मैं झुकाता हूँ
शीश बेझिझक, करता हूँ अपनी भूलों का पश्चाताप,
हर दिन जीवन करता है उसे अभिनव रूप
में अंगीकार - - -
अत्यंत सुन्दर कविता – साधुवाद
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