सहयात्री
विप्लव, भूल से न समझे कोई
सब कुछ है अच्छा, न
जाने कब उठे
सहसा
किस दिशा से ले कर अग्निशिखा, कर
जाए पलक झपकते सब तहस
नहस, विस्मृत व मृत
के शाब्दिक अर्थों
में है अंतर,
भूलना और भूला देना दोनों सहज नहीं,
रत्न जड़ित मुकुट, मयूर -
सिंहासन और धूसर
कंटकमय पथ
के मध्य
की दूरी बहुत नहीं, कब कालचक्र थम
जाए इसकी भविष्यवाणी
सरल नहीं, अदृश्य
अभिशाप जब
हो जाएँ
जागृत, मौन शक्ति कर जाती हैं पलभर
में स्वाहा, कौन राजा और कौन
रंक, उस पथ के यात्री
सभी समान,
रिक्त
हाथ सभी मुसाफिर, कभी तू गंतव्य की
ओर कभी मैं आकाश पार,
फिर क्यूँ इतना करे
हाहाकार - - -
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें