ज़िन्दगी ढूँढती है
अर्श से फ़र्श तलक मुसलसल
की मेरा वजूद बिखरा है
बेतरतीब, किसी की मजबूरियों
में हूँ शामिल, बेचता हूँ
जिस्म ओ जां, जीने के लिए,
क़र्ज़ में डूबे हैं खेत
ओ खलिहान, पलायन है -
मेरी नियति, माथे
पर खुदे हैं, अभिशापित लकीरें
हर पल ठगे जाना,
हर क्षण जीना मरना, इसके
सिवा कुछ भी नहीं मेरे
पास, लौट जाओ भी -
इस धूलभरी राहों में तुम चल न
सकोगे, ये राह नहीं आसां,
नदी पार, पगडंडियों से निकल,
ईंट भट्टों में कहीं, आगे ज़रा बढ़ कर
दाह घाटों में बिखरे फूलों में
छुपे चंद सिक्कों में
कहीं, संकरी गलियों से उठते धुएँ -
के ओट में, थके हुए बचपन में कहीं,
चाय की दूकान के सामने, पंचर
सुधारते नन्हीं उँगलियों में
कहीं, पान की पीक भरे
नुक्कड़ की वो दीवार, जिसमें किसी
ने लिखा था," वो सुबह ज़रूर आएगी",
उसी दिवार से ढहते हुए
प्लास्तरों के टुकड़ों में कहीं,
बिखरा पड़ा है
अस्तित्व मेरा, ये ज़िन्दगी
नाहक है तलाश तेरा, कि कब से मैं
हूँ गुमशुदा ज़माने की भीड़ में !
* * - - शांतनु सान्याल
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