ग़ज़ल
जिस्म है ये काँटों से सजा, रुको ज़रा संभल के,
हिक़ारत, नफ़रत, आग के शोलों में ढला हूँ मैं
आसपास भी हैं ज़िन्दगी, देखो ज़रा निकल के,
बंद घरों की खिड़कियों से, है दूर जलता चमन
बच्चों की मानिंद फिर भी, खेलो ज़रा मचल के,
इन लहरों में उठती हैं हार ओ जीत की तस्वीरें
किसी दिन के लिए यूँ दिल, देखो ज़रा बदल के,
समंदर का खारापन,साहिल को अपना न सका
नदी की मिठास में कभी ख़ुद, देखो ज़रा ढल के,
कुंदन हो या हीरे की चुभन, मुझे मालूम नहीं -
भीगी निगाहों से तो कभी, देखो ज़रा पिघल के,
मंदिर मस्जिद तक, क्यूँ सिर्फ़ है तुम्हारी मंजिल !
क़रीब है ज़िन्दगी, नंगे पांव, आओ ज़रा चल के,
समंदर का खारापन,साहिल को अपना न सका
जवाब देंहटाएंनदी की मिठास में कभी ख़ुद, देखो ज़रा ढल के,...waah
इन लहरों में उठती हैं हार ओ जीत की तस्वीरें
जवाब देंहटाएंकिसी दिन के लिए यूँ दिल, देखो ज़रा बदल के,
समंदर का खारापन,साहिल को अपना न सका
नदी की मिठास में कभी ख़ुद, देखो ज़रा ढल के,
बहुत सुन्दर गज़ल
आदरणीया संगीता दी एवं वंदना दी, अंतर्मन से धन्यवाद, नमन सह.
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