08 मई, 2017

ये सोच कर अच्छा लगता है - -

बेवजह ही हम सोचते हैं कल सुबह
के वास्ते, जबकि पल में क्या
हो कहना है मुश्किल,
रोज़ सींचता हूँ
मैं गैलरी
के उस नन्हें से पौधे को, सोचता हूँ
कि कब उसमें फूल खिलेंगे,
और कब गन्धकोष से
सुगंध बिखरेंगे,
हालाँकि
हर चीज़ बंधा है अपनी जगह काल
चक्र से, फिर भी सपनों की
भूमि में सैर करना अच्छा
लगता है। मुझे मालूम
है किसी को भी
अपना बनाना
इतना भी
आसान नहीं, फिर भी रोज़ सुबह -
सवेरे, पक्षियों को बाजरी देना
अच्छा लगता है, उनका
यूँ निर्भय हो कर
पास आना
और
कौतूहल दृष्टि लिए देखना दिल को
सुकून देता है तपती  दुपहरी
में यूँ मैनों का चहचहाना,
अंतर्मन को कुछ
अलग तरह
से
पुलकित कर जाता है। माटी के - -
कटोरों में जल भरना अच्छा
लगता है, मालूम है
मुझको रस्मे
दुनिया
फिर भी नन्हें क़दमों को सहारा देना
अच्छा लगता है। पक्षी हों या
पौधे या मासूम बच्चों की
निर्मल हंसी, सब एक
दिन अपनी
तरह से
खिलेंगे, अपनी तरह से उड़ेगें, ये - -
सोच कर जीवन सार्थक
लगता है।

* *
- शांतनु सान्याल


07 मई, 2017

उन्मुक्त अभियान - -

रिश्तों के ग्राफ, सागरमुखी नदी,अहाते
की धूप, स्थिर कहाँ होते हैं, मौसम
के साथ बदल जाते हैं अपना
रास्ता, कुछ उकताहट,
कुछ मीठापन
रह जाता
है अपने साथ। यूँ तो बड़ी नज़ाकत से -
उसने, दिल के संदूक में तह किया
था मेरे हिस्से के रौशनी को,
लेकिन वक़्त ने आख़िर
छोड़ दी सिलवटों
के निशान।
जो भी
हो अच्छा लगता है नाज़ुक तितलियों का
यूँ हथेली पर आ उड़ जाना, मेघों
का ईशानकोण में उभरना,
अनाहूत नीम सर्द हवाओं
का शाम ढले
धीरे धीरे
बहना। दरअसल ज़िन्दगी को चाहिए कभी
कभी, इक मुश्त कबूतरों की उड़ान,
बहुत दूर, उन्मुक्त अभियान।

* *
- शांतनु सान्याल

06 मई, 2017

मेरे आसपास - -

जो कुछ टूटा फूटा बिखरा हुआ सा था
वो सभी तो मेरा अपना था, किसे
स्वीकार करें और किसे त्याग
करें, कहाँ मिलता है इस
दुनिया में मन वांछित
सुख। हमने भी
रफ़ू करके
जीना
सीख लिया। जो कुछ भी था अपने पास
बस उसी को भाग्य समझ लिया,
कुछ बेरंग दीवारों पर हमने
टांग दिए पुराने कैलेण्डर,
रंग विहीन फर्निचरों
पर चढ़ा दिए
चटक
रंगों के सस्ते आवरण, आईने की भी
शिकायत दूर की, गीले कपड़े से
उसे पोंछ दिया, लेकिन
बिम्ब को संवारना
नहीं था सहज,
अतएव
उसे सहर्ष स्वीकार किया, जैसा भी था
अपना जीवन, उसे हमने भरपूर
जिया। आए हो बरसों बाद
ज़रा बैठो, कुछ सुनो,
कुछ सुनाओ, न
देखो मेरे
आसपास, ये सभी आत्मीय स्वजन हैं -
मेरे, ज़रा से फटे पुराने ज़रूर हैं,
जब देह में ही दरारें निकल
आएं तब इन निर्जीव
वस्तुओं की क्या
बिसात।
समय अपना सूद हर हाल में वसूलता
है और छोड़ जाता है झुर्रियों के
निशान, जंग लगे परतों पर
लिख जाता है अतीत
के अहंकारी
गान।

* *
- शांतनु सान्याल



05 मई, 2017

मौन आर्तनाद - -

तमाम लेनदेन रहते हैं निस्तब्ध से
जब उतरती है, सांझ दबे पाँव
पीपल तले, देह में लपेटे
रहस्यमयी अंधकार।
पुरातन मंदिर
के पट
जब होते हैं बंद, जीवन चक्र होता
है पुनः जागृत। सांध्य प्रदीप
के उठते धूम्र वलय
के साथ फिर
सजते हैं
राजपथ के मीनाबाज़ार। कुछ मृत
सीपों के खोल, कुछ वीरान
निगाहों के मरुस्थल,
कुछ दम तोड़तीं
समंदर की
लहरें
लिख जाती हैं गीले रेत पर जीवन
की कुछ अनकही कहानी,
कुछ अभिशप्त कथा
जो हैं यथावत
अपनी
जगह अडिग -अचल, कहने को - 
सारी पृथ्वी का रूप - रंग हो
चुका है बदल, लेकिन
नग्न सत्य है अपनी
जगह अविचल।
वही सजल
नेहों से
तकती, थकीहारी रात्रि करती है
पुनः विहान का अभिवादन,
स्व विलीन हो कर नव
सृजन की ओर
अग्रसर।

* *
- शांतनु सान्याल

04 मई, 2017

सभी को चाहिए - -

सभी को चाहिए कहीं न कहीं कुछ पल
सुकून भरा, कुछ महकते हुए दिन
कुछ खिलती हुईं रातें, कुछ
ख़ालिस अपनापन, कुछ
ख़ामोश निगाहों की
बातें | सभी को
चाहिए
कभी न कभी, कुछ नज़दीकियों की - -
गर्माहट, कुछ सर्दियों के ढलते
दिन, कुछ जाने पहचाने
दिल को छूते हुए
मधुरिम से
आहट,
सभी को चाहिए किसी न किसी मोड़ पर
मुन्तज़िर चेहरे, कुछ गुलाबी मुस्कान,
कुछ ख़ुश्बुओं  में डूबे हुए कलरव,
कुछ खुला खुला सा नीला
आसमान, तमाम
मुखौटों से
दूर
कोई इक सच्चा इंसान, सभी को चाहिए
कुछ पल के लिए ही सही सभी दुःख
दर्द से अवसान |

* *
- शांतनु सान्याल 

 

16 अप्रैल, 2017

ख़्वाहिश - -

दिल के दरीचे यूँ ही रहे हमेशा -
गुलज़ार, पतझर की हैं
अपनी अलग ही
मजबूरियां,
आते
जाते रहेंगे वो तो यूँ ही बारम्बार।
अँधेरे ओ उजाले  के दरमियां
इक लकीर होती है, ज़रा 
उम्मीदों से नीम
रौशन ! रहने
दे मुझे
भी उस नूर का तलबगार। न
जाने कौन था वो मजरूह
मुसाफ़िर, खूं -आलूद
क़दमों से गुज़रा
है कल रात,
तभी तो
है राहे बाग़ में यूँ शबनमी बहार।
फिर कोई ख़्वाब ए मरहम
लगा जा, इन सुलगते
आँखों के किनारे,
फिर जीस्त
मेरा
चाहे टूट कर बिखरना, तेरी बाँहों
में मानिंद आबशार। 

* *
- शांतनु सान्याल

28 मार्च, 2017

भूले - बिसरे चेहरे - -

उभरती हैं कुछ डूबती यादें, संग ए साहिल की तरह,
कुछ उजले - उजले से हैं, भूले - बिसरे चेहरे,
कुछ मद्धम - मद्धम , मीठे  दर्द ए दिल
की तरह। कहाँ मुमकिन है चाँदनी
को यूँ निगाहों में, उम्र भर के
लिए क़ैद करना, अँधेरा
ही बन जाए अक्सर
मेरा रहनुमा ए
सफ़र,
बहोत दूर, किसी मीनार ए क़न्दील की तरह। क़सम
सभी होते हैं टूट जाने के लिए, चाहे वो तेरी
पुरअसरार निगाहों की बात हो, या
आख़री पहर, ख़्वाबों का यूँ
आसानी से मुकर जाना,
कुछ न कुछ ज़ख्म
तो दे जाते हैं,
टूटे हुए
काँटे, हथेलियों में किसी ख़ूबसूरत क़ातिल की तरह। - -
उभरती हैं कुछ डूबती यादें, संग ए साहिल की
तरह - -

* *
- शांतनु सान्याल

 

20 मार्च, 2017

उभरना और डूबना - -

सूखते आँखों के
किनारे,
टूटे
ख़्वाबों के हैं कतरन
बिखरे हुए दूर
तक फिर
चल
पड़े हम अनजान
मंज़िलों की
ओर, छोड़
आए
बहोत पीछे, वो अपने
- पराए सारे। तमाम
रेत के महल बह
 जाते  हैं
अपने
आप, आसां नहीं 
वक़्त के लहरों
को यूँ  रोक
पाना,
 उभरना या डूबना तो
हैं ज़िन्दगी के दो
पहलू, क़िस्मत
से चाहे, क्यूँ
न मिले
हमें ढेरों  चाँद सितारे।

* *
- शांतनु सान्याल

 
कुछ नमी सी है बाक़ी

08 मार्च, 2017

आख़री बार - -

वो दर्द जो सदियों जा कर बन जाए रेत का
साहिल।  हर लम्हा टूटना, हर पल टूट
कर बिखरना, हर इक ख़ूबसूरत
कहानी में फिर ढलना और
मोम की तरह, आख़री
पहर, ख़ामोश
पिघलना,
जी चाहता है, कि मेरा वजूद भी हो, उन्ही - 
पागल लहरों में  कहीं शामिल। चलो
फिर करें अनाहूत हवाओं से
दोस्ती, अंधकार घिरने
से पहले, ज़रूरी है
दिल का
चिराग़ जलना, अंतर्मन का निखरना, फिर
चाँदनी में उन्मुक्त बिखरना, ज़िन्दगी चाहती है तुमसे आख़री बार, यूँ ही
अनंतकालीन  मिलना - -

* *
- शांतनु सान्याल

  

30 जनवरी, 2017

उम्मीद से कहीं ज़ियादा - -

कुछ तेरी आँखों में रहे पिन्हां, कुछ मेरे
सीने में रहे ज़िंदा, वो लम्हात जिसे
धड़कते दिल ने अहसास किया।
कांपते लबों पे वो बिखरे
हुए बूंदें, शबनम थे
या ख़ामोश
तबादिल जज़्बात ! रहने दे पोशीदा यूँ
ही राज़ ए ज़िन्दगी, पल दो पल
ही सही लेकिन हमने उसे
भरपूर जिया। उस
मुख़्तसर रात
में हम ने
जी ली है उम्र से कहीं लंबी ज़िन्दगी !
तमाम ख़्वाहिश हो गए अब
ज़ाफ़रानी, तुम्हें पा कर
हम ने उम्मीद
से कहीं
ज़ियादा है पा लिया, मेरे  सीने में रहे
ज़िंदा, वो लम्हात जिसे धड़कते
दिल ने अहसास किया।

* *
- शांतनु सान्याल

12 जनवरी, 2017

निबाह ज़रूरी है - -

आसपास यूँ तो आज
भी हैं ख़ुश्बू के
दायरे,
गुल काग़जी हों या
महकते हुए
यास्मीन,
निबाह ज़रूरी है
मुख़ौटे हों या
असल
चेहरे। बर ख़िलाफ़
क़ुदरत के यूँ
बहना नहीं
आसान,
रोके
से न रुके ये परिंदे
तो  मुहाजिर
ठहरे।
जिस्म के पिंजरे पर
अख़्तियार है
मुमकिन,
 दर ए
रूह,  ग़ैर  मुमकिन 
है लगाना
पहरे। 

* *
- शांतनु सान्याल

01 जनवरी, 2017

नया जिल्द - -

नयेपन का एहसास, यक़ीनन उम्र बढ़ा
देता है, भूली - बिसरी किताब  पर
जैसे कोई जिल्द चढ़ा देता
है। वो कोई दस्तक
था या मेरा
भरम,
जो भी हो, इक पल के लिए ही सही वो
शख़्स, जीने की चाह बढ़ा देता है।
इस दौर में बहोत मुश्किल
है यूँ तो मौलिक चीज़ों
को हासिल करना !
फिर भी,
औपचारिकता ही क्यों न हो इन जाली
मुस्कुराहटों में, ऐ दोस्त, कुछ देर
के लिए ही सही ये जीवन में
प्राणवायु बढ़ा देता है।
भूली - बिसरी
किताब पर जैसे कोई जिल्द चढ़ा देता है।

**
- शांतनु सान्याल 

14 दिसंबर, 2016

অন্তহীন ভাসান - -

 অবশেষে সে ছুঁয়েছে গভীরতম বিন্দু -
 যেন শীতের শেষে ঋতুরাজের
উড়ো চিঠি, অরণ্য গন্ধে
মাখা গোপন হৃদয়ের
লিপি। অন্তত সে
ভুলে নি সেই
উত্তর
দিকের জানালা, হারানো কোন শিহরণ
জড়িয়ে বুকে, সে  রেখে গেছে
অনুরাগের ছোঁয়া উড়ন্ত -
পর্দার গায়ে।তার
পরশে ছিল
অদ্ভুত
কুহকের ছায়া, যেন দেহ ও প্রাণে, ঘিরে 
আছে অদৃশ্য জগতের মায়া। জানি
না তার মুক্ত স্রোতের উৎস,
শুধুই ভেসে চলেছি
সুদূর অজানা
ভাসন্ত
দ্বীপের সমান্তরালে।চার দিকে শুধুই অথৈ
জলরাশি - -  !

* *
- শান্তনু সান্যাল

07 दिसंबर, 2016

फिर भी अच्छा लगता है - -

वो मिले इक ज़माने के बाद, ये सच है 
लेकिन, आज भी कहीं उनकी
आँखों में है इक मुन्तज़िर 
तिश्नगी।  वक़्त
उतार देता
है हर
इक  मुलम्मा मेरे दोस्त, आईने से - 
शिकायत है बेमानी, न जाने
किस जानिब बह गए वो
तमाम दावा - ए -
वाबस्तगी।
फिर भी
अच्छा
लगता है, इक ज़माने के बाद तुमसे
मिलना ऐ लापता ज़िन्दगी।

* *
- शांतनु सान्याल



04 नवंबर, 2016

मुमकिन नहीं ज़र्द पत्तों का सदाबहार
होना, फिर भी दिल की तसल्ली के
लिए बुरा नहीं बे मौसम यूँ
बेक़रार होना। मुझे
मालूम है उम्र
का तक़ाज़ा,
फिर भी हर्ज़ भला क्या है ख़्वाबों का - -
तलबगार होना। मुरझाए चेहरों
का दर्द यहाँ कोई नहीं
समझता, बेहतर
है ख़ुद - ब -
ख़ुद ज़िन्दगी के आईने से दो चार होना।

* *
- शांतनु सान्याल


 


27 अक्टूबर, 2016

सांध्य प्रदीप - -

वो एकाकी सांध्य प्रदीप हूँ जिसे
जला के किसी ने यूँ ही भूला
दिया। मुद्दतों से, इक
अदृश्य आग लिए
सीने में, जल
रहा हूँ मैं
किसी
अनबुझ प्यास की तरह आठ - -
पहर, ये और बात है कि
ज़माने ने, श्रेय सारा
पुरोहित को दे
दिया। और
मेरा
अस्तित्व रहा यथावत ऊसर भूमि
की तरह उपेक्षित, पतझर के
पत्तों से आच्छादित,
लेकिन इन्हीं मृत
पत्तों से होता
है सृष्टि
का
नव सृजन। जलना है मुझे यूँ ही -
अंतहीन अंधकार में सतत,
जब तक है मौजूद ये
पृथ्वी और गहन
आकाश।

* *
- शांतनु सान्याल




 

09 अक्टूबर, 2016

लुप्तप्रायः - -

आज भी उभरते हैं ईशान कोणीय मेघ, आज
भी गौरैया रौशनदान पर बनाते हैं नीड़,
आज भी दालान पर बिखरती है
चाँदनी और खिलते हैं
चंद्रमल्लिका भी,
हमेशा की
तरह।
किसी के रहने या न रहने से, कुछ फ़र्क़ नहीं
पड़ता, रंगमंच, यथावत वहीँ रहता है
अपनी जगह, केवल बदल जाते
हैं चरित्र और  परिदृश्य।
नेपथ्य में कहीं
उपेक्षित
पड़ी
होती हैं स्मृतियाँ, कुछ आईने पर पसरती - -
धूल। पुरातन पृष्ठों की गंध सोख लेती
हैं अभिलाष की सजलता, और
अहसास, क्रमशः बन जाते
हैं सूखे गुलाब के फूल,
किताबों के मध्य
लुप्तप्रायः।

* *
- शांतनु सान्याल


06 अक्टूबर, 2016

बेइंतहा - -

कहीं कोई ख़्वाब बिखरते बूंदों की तरह,
रात ढलने से पहले बस ज़रा, कुछ
एक लम्हों के लिए ही सही,
भिगो जाए रूह की
गहराइयाँ।
तुम हो मेरी सांसों में जज़्ब या ज़िन्दगी
में लौट आई है गुमशुदा, मौसम ए
बहार की इनायतें, साया है
तुम्हारा मेरे वजूद को
घेरे हुए, या खिलें
हैं आख़री -
पहर,
हरसिंगार की डालियाँ। मद्धम मद्धम - -
तुम्हारे निगाहों की रौशनी, और
वादियों में घुलता हुआ इक
संदली अहसास, तुम
हो मेरे पहलू में
या जिस्म
ओ जां
में छाए हुए हैं चाँद सितारों की सुरमयी
परछाइयाँ।

* *
- शांतनु सान्याल

 

27 सितंबर, 2016

अस्थिर बिंदु - -

अस्थिर शिशिर बिंदु है अनुराग तुम्हारा
उन्मुक्त कमल पत्र सा हृदय हमारा,
बिहान और सूरज का अनुबंध
है चिरस्थायी, रहने दे
अन्तर्निहित कुछ
शेष प्रहर के
पल यूँ
ही अपरिभाषित, किसे ख़बर कब हो जाए
विलीन ये क्षण भंगुर जीवन।

* *
- शांतनु सान्याल

13 सितंबर, 2016

श्रृंखल विहीन - -

अदृश्य मेघ की तरह कोई छुअन हो
भीगा सा, जो छू जाए अंतर्मन
का मीलों लंबा सूखापन।
कहने को यूँ तो
जीवन के
दोनों
तट में  हैं, चिरहरित पेड़ की कतारें,
सृष्टि का विधान समझना नहीं
आसान, कहीं दूर दूर तक
हैं बिखरे मरू प्रांतर,
और कहीं वृष्टि
का अति
अपनापन। दिल के अहाते खिले हैं
हरसिंगार उन्मुक्त, महक चले
फिर प्रतिबिंबित  भावनाएं,
दर्पण के नेपथ्य में है
कहीं गुम, मेरा
अबोध
बचपन, फिर अलमस्त हो बिखरना
चाहे श्रृंखलित जीवन।

* *
- शांतनु सान्याल

07 सितंबर, 2016

उन्मुक्त जहान - -

रेशमी कोषों में बंद तितलियों को
उड़ान मिले, हर कोई है
यहाँ स्वप्नील राहों
का मुसाफ़िर,
मुट्ठी में
बंद जुगनुओं को खुला आसमान
मिले। निज परिधियों में रह
यूँ ही न घुट जाए कहीं
दम, इन सांसों को
उन्मुक्त फिर
कोई जहान
मिले।
इन सांप सीढ़ियों के  खेल
का कोई यक़ीन नहीं,
कब, किसे और
कहाँ, नाज़ुक
ताश के
मकान मिले। बेशक़, तुम
मुमताज महल से
ज़रा भी कम
नहीं, ये
ज़रूरी
नहीं कि तुम्हें असल कोई
शाहजहान मिले। यूँ
 तो उम्मीद पे
क़ायम है
ये तमाम रंगीन कायनात,
खिलते मुस्कुराते गुलों
को इक सच्चा
 बाग़बान
मिले।
रेशमी कोषों में बंद तितलियों
को उड़ान मिले।

* *
- शांतनु सान्याल

30 अगस्त, 2016

चलते चलते - -

यूँ तो बदलते रहे रंग ओ
नूर ज़िन्दगी के,
बेअसर रहा
लेकिन
दिल ए किताब मेरा।
अंधेरों के खेल में
कहीं सहमा
सा है
उजाला, हर हाल में है
ताज़ा, वो पोशीदा
गुलाब मेरा।
मेरी
चाहतों का पैमाना
नहीं किसी के
पास, कहने
को
सिफ़र है उम्रभर का
दस्तयाब मेरा।
लिबास ओ
किरदार
से न
आँक वजूद, ऐ दोस्त,
रहने दे अपने पास
ये मुहोब्बत
बेहिसाब
मेरा।
चाहे कोई ख़ास हो
या आम, ये राह
 है यक़ीनी,
कहीं न
कहीं मिल जायेगा वो
 इश्क़ नायाब
मेरा।

* *
- शांतनु सान्याल

19 अगस्त, 2016

वसीयतनामा - -

जीवन के ये चार अध्याय हैं
अनंत चिरस्थायी, हर
हाल में है हमें
गुज़रना
इन
झूलते सोपानों से, अंतहीन
यात्रा से क्या किसी ने
है मुक्ति पायी। 
उभरते
सूरज का अपना अलग ही
है समयाकलन, शाम
ढलते ही, देह से
अधिक
बढ़ जाए परछाई। अंकुरित
बीज और शाखा -
प्रशाखाओं का
विस्तार,
कभी
प्रातः की कच्ची धूप और
कभी साँझ अलसाई।
हर तरफ हैं
टंगे हुए
नए
पुराने बेशुमार मुख़ौटे, - -
दर्पण का नग्न
वसीयतनामा
ही है मेरी
सच्चाई।
जीवन के ये चार अध्याय
हैं अनंत चिरस्थायी।

* *
- शांतनु सान्याल

10 अगस्त, 2016

अनजान आदमी - -

यूँ तो नाम की तख़्ती है अपनी
जगह उभरी हुई बंद दरवाज़े
के पार मगर दस्तक
पहुँचती नहीं,
दरअसल,
इन लेज़र किरणों से तरंगित -
राहों में कहीं, गुमशुदा सा
है आम आदमी।
अंतिम
मंज़िल छू चले हैं पीपल की - -
टहनियां, लेकिन हम
आज भी हैं अनजान
भू - तल की
माटी से।
पुरअसरार चेहरे लिए घूरते हैं
लोग एक दूजे को, ये और
बात है कि औपचारिकता
की मुस्कान होती है
उनकी ओंठों
पर। दरअसल, सारी दुनिया ही
अपने आप में है सिमटी हुई,
बहोत एकाकी, यूँ तो
कहने को ज़मीं से
आसमां तक है
छाया हुआ
आदमी।
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

30 जुलाई, 2016

सिफ़र से ज़ियादा - -

इस मोड़ से आगे है सिर्फ़ अंतहीन ख़ामोशी,
और दूर तक बिखरे हुए सूखे पत्तों के
ढेर, फिर भी कहीं न कहीं तू
आज भी है शामिल इस
तन्हाइयों के सफ़र
में। इक बूंद
जो कभी
तेरी आँखों से टूट कर गिरा था मेरे सुलगते
सीने पर, यक़ीन जानो, उस पल से
आज तक आतिशफिशाँ से कुछ
कम नहीं मेरी ज़िन्दगी।
ये सही है कि  हर
इक ख्वाब का
इख़्तताम
है मुक़र्रर, फिर भी मेरी निगाहों को है सिर्फ़
तेरी दीदार ए आरज़ू। ये और बात है कि
पल भर में दुनिया ही बदल जाए,
होंठ तक पहुँचते ही कहीं
इज़हार ए जाम न
छलक जाए।
फिर भी
उम्मीद से ही है आबाद, चाँद सितारों की - -
दुनिया, वरना ये आसमान इक
सिफ़र से ज़ियादा कुछ भी
नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल

 

23 जुलाई, 2016

कभी हो सके तो आओ -

ज़िन्दगी की ज्यामिति
इतनी भी मुश्किल
नहीं कि जिसे
ढूंढे हम,
हाथ
की लकीरों में। तुम्हारे
शहर में यूँ तो हर
चीज़ है ग़ैर
मामूली,
मगर
अपना दिल लगता है
सिर्फ फ़क़ीरों में।
कभी हो सके
तो आओ
यूँ ही
नंगे पांव चलके मेरी
दुनिया है बसी,
बिन पाँव के
शहतीरों
में।

* *
- शांतनु सान्याल

16 जुलाई, 2016

क़दम दर क़दम - -

अंततः सुबह के साथ ही वन्य नदी का
उफान भी उतर गया, सपनों की
थी रहगुज़र या दीवानापन
मेरा, छू कर अंतरतम,
वो जलतरंग सा
अहसास, न
जाने किधर गया। उनकी नज़दीकियां
यूँ तो चाँद रातों से कम न थीं,  बूँद
बूँद आँखों से नूर, यूँ रूह की
गहराइयों में उतरती
रही, ज़िन्दगी
हर पल
किसी की चाहत में यूँ डूबती उभरती - -
रही। कोई ख़ुश्बू पुरनम या कोई
छुअन शबनमी, न जाने
क्या था उसका राज़
ए तब्बसुम !
दूर तक
जैसे महके चन्दन वन और खिलते रहे
गुलाब क़दम दर क़दम।

* *
- शांतनु सान्याल

08 जुलाई, 2016

अपना ख़ुदा - -

आँखों का खारापन रहा अपनी जगह
मुसलसल, कहने को यूँ थी बारिश
रात भर। न जाने कौन था वो
हमदर्द, छू कर रूह मेरी
ओझल हुआ यूँ
अकस्मात,
जैसे उड़
जाए अचानक नूर की बूंद एक साथ।
कभी उसने बनाया मेरा वजूद
इक माटी का खिलौना,
और कभी मैंने ख़ुद
ही तलाशा इक
कांच का
बिछौना। किस आख़री पहर में वो रहे
मेरी सांसों में शामिल, कहना है
बहोत मुश्किल, आसां नहीं
लहरों से लहरों को यूँ
जुदा करना, इतनी
मुहोब्बत
ठीक नहीं, कि ज़हर भी लगे अमृत - -
कहीं लग न जाए संगीन जुर्म
तुम पे, यूँ सरे महफ़िल 
बेनक़ाब हो, किसी
को अपना ख़ुदा
कहना।

* *
- शांतनु सान्याल
 

04 जुलाई, 2016

जो उड़ गए तो उड़ गए - -

कुछ रास्ते कभी भुलाए नहीं जाते, चाहे
जितने भी सुख क्यों न हों आज के
सफ़र में, कुछ दर्द किसी के
वास्ते भुलाए नहीं जाते।
हमें ज़रा भी ख़बर
न थी कि
छीन
लेंगे वो हमसे हमारा वजूद, चलो ठीक
ही है जिस्म का तलबगार होना,
रूह आलूद ख़ुश्बू मगर
मिटाने से भी
मिटाए
नहीं जाते। वही दालान है फूलों की - -
क्यारियों वाला, वही अहाते में
झूलता हुआ  ख़ाली पिंजरा,
वो लम्हा था या कोई
सुनहरा परिंदा,
किसे
मालूम ? जो उड़ गया मौसमी हवाओं
के हमराह, लाख चाहें मगर कुछ
ख़्वाहिश लौटाए नहीं जाते।
कुछ दर्द किसी के वास्ते
भुलाए नहीं
जाते। 

* *
- शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past