08 जुलाई, 2016

अपना ख़ुदा - -

आँखों का खारापन रहा अपनी जगह
मुसलसल, कहने को यूँ थी बारिश
रात भर। न जाने कौन था वो
हमदर्द, छू कर रूह मेरी
ओझल हुआ यूँ
अकस्मात,
जैसे उड़
जाए अचानक नूर की बूंद एक साथ।
कभी उसने बनाया मेरा वजूद
इक माटी का खिलौना,
और कभी मैंने ख़ुद
ही तलाशा इक
कांच का
बिछौना। किस आख़री पहर में वो रहे
मेरी सांसों में शामिल, कहना है
बहोत मुश्किल, आसां नहीं
लहरों से लहरों को यूँ
जुदा करना, इतनी
मुहोब्बत
ठीक नहीं, कि ज़हर भी लगे अमृत - -
कहीं लग न जाए संगीन जुर्म
तुम पे, यूँ सरे महफ़िल 
बेनक़ाब हो, किसी
को अपना ख़ुदा
कहना।

* *
- शांतनु सान्याल
 

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