13 सितंबर, 2016

श्रृंखल विहीन - -

अदृश्य मेघ की तरह कोई छुअन हो
भीगा सा, जो छू जाए अंतर्मन
का मीलों लंबा सूखापन।
कहने को यूँ तो
जीवन के
दोनों
तट में  हैं, चिरहरित पेड़ की कतारें,
सृष्टि का विधान समझना नहीं
आसान, कहीं दूर दूर तक
हैं बिखरे मरू प्रांतर,
और कहीं वृष्टि
का अति
अपनापन। दिल के अहाते खिले हैं
हरसिंगार उन्मुक्त, महक चले
फिर प्रतिबिंबित  भावनाएं,
दर्पण के नेपथ्य में है
कहीं गुम, मेरा
अबोध
बचपन, फिर अलमस्त हो बिखरना
चाहे श्रृंखलित जीवन।

* *
- शांतनु सान्याल

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