यूँ तो नाम की तख़्ती है अपनी
जगह उभरी हुई बंद दरवाज़े
के पार मगर दस्तक
पहुँचती नहीं,
दरअसल,
इन लेज़र किरणों से तरंगित -
राहों में कहीं, गुमशुदा सा
है आम आदमी।
अंतिम
मंज़िल छू चले हैं पीपल की - -
टहनियां, लेकिन हम
आज भी हैं अनजान
भू - तल की
माटी से।
पुरअसरार चेहरे लिए घूरते हैं
लोग एक दूजे को, ये और
बात है कि औपचारिकता
की मुस्कान होती है
उनकी ओंठों
पर। दरअसल, सारी दुनिया ही
अपने आप में है सिमटी हुई,
बहोत एकाकी, यूँ तो
कहने को ज़मीं से
आसमां तक है
छाया हुआ
आदमी।
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
जगह उभरी हुई बंद दरवाज़े
के पार मगर दस्तक
पहुँचती नहीं,
दरअसल,
इन लेज़र किरणों से तरंगित -
राहों में कहीं, गुमशुदा सा
है आम आदमी।
अंतिम
मंज़िल छू चले हैं पीपल की - -
टहनियां, लेकिन हम
आज भी हैं अनजान
भू - तल की
माटी से।
पुरअसरार चेहरे लिए घूरते हैं
लोग एक दूजे को, ये और
बात है कि औपचारिकता
की मुस्कान होती है
उनकी ओंठों
पर। दरअसल, सारी दुनिया ही
अपने आप में है सिमटी हुई,
बहोत एकाकी, यूँ तो
कहने को ज़मीं से
आसमां तक है
छाया हुआ
आदमी।
* *
- शांतनु सान्याल
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