26 अगस्त, 2022

नियति के हवाले - -

एक अजीब से ऊहापोह में जी रहे हैं सभी,
राग दरबारी के सुर में सुर मिलाते
हुए, रंगीन प्यालों में भर कर
असत्य का विष पी रहे
हैं सभी । किसी
एक बिंदु
पर
आ रुक सी गई है उत्क्रांति, मुखौटे पर है
दर्ज, पुरसुकून अमन की कशीदाकारी,
दरअसल सीने के अंदर है मौजूद
अशांति ही अशांति । चौखट
पर आ कर न आवाज़
दो यूँ सूदखोर
महाजन
की
तरह, कुछ वक़्त चाहिए वजूद को फिर
से टटोलने के लिए, मृत नदी की
तरह बेसुध पड़ा है चिराग़ों
का जुलूस, बहुत कुछ
खोना होता है,
खुलेआम
सच
बोलने के लिए । तथाकथित मसीहा ने
ही कल रात जलाई है बस्तियां,
आज सुबह वही शख़्स
दे रहा है दोस्ती
पर तक़रीर,
लोग
भी
हैं वही लकीर के फ़क़ीर, कर रहे हैं सिर
झुकाए तस्लीम अपनी बिखरी
हुई तक़दीर।
* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 


25 अगस्त, 2022

पांथ पखेरू - -

उस पथ का हूँ पांथस्थ मैं जहाँ मिलते
हैं सागर और आकाश, कुछ पल
का ठहराव, कुछ पल ख़ुद
से संवाद, यूँ ही चलता
रहता है जीवन
प्रवास,
समय का हिंडोला नहीं थमता, कभी
तुम हो शून्य पर, और मैं पृथ्वी
पर एकाकी, कभी खिलते
हैं नागफणी के फूल,
 और कभी
असमय
मुरझाए मधुमास, दिवा - निशि अंतहीन
है अंतरतम की यात्रा, उतार चढ़ाव,
शहर जंगल, सरल वक्राकार,
शब्दों का उत्थान पतन,
पीछे मुड़ कर देखने
का नहीं मिलता
अवकाश,
यूँ तो हर शख़्स है यहाँ अपने आप में
गुम, फिर भी पहचानते हैं मुझे
चाँदनी रात, जुगनुओं के
नील प्रकाश, भोर
के बटुए में
बंद सुबह
की
नाज़ुक धूप, गुलाब खिलने की एक
छोटी सी आस, मरुद्यान में
कहीं है एक कुहासामय
पांथ शाला, कुछ
पल का विश्राम,
कुछ क्षण
पुनर्जीवन का एहसास, अश्रु बूंद के - -
अतिरिक्त भी बहुत कुछ है
मेरे पास, उस पथ का
हूँ पांथस्थ मैं जहाँ
मिलते हैं सागर
और आकाश,
आहत
पांथ पखेरू को है पुनः उड़ने का विश्वास !
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

13 अगस्त, 2022

माया मृदंग - -

न तुम कुछ कह सके, न ओंठ मेरे ही हिले,
सब कुछ अनसुना ही रहा, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता रहा समय
का मायामृदंग, सुबह की
बारिश में फिर खिले
हैं नाज़ुक गुलाब,
शायद दिन
गुज़रे
अपने आप में लाजवाब, कुछ दूर ही सही
चले तो हम एक संग, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता रहा
समय का माया -
मृदंग । एक
बिंदु
रौशनी जो उभरती है दिगंत रेखा के उस
पार, बौछार से फूल तो झरेंगे ही
फिर उन का शोक कैसा,
बादलों के नेपथ्य
में है कहीं
उजालों
का
शहर, ये अँधेरा है कुछ ही पलों का इनका
भला अफ़सोस कैसा, किनारे पर आ
कर कहाँ रुकते हैं महा सागर के
विक्षिप्त तरंग, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता
रहा समय का
माया मृदंग ।
* *
- - शांतनु सान्याल
   

11 अगस्त, 2022

रूपांतरण - -

एक पगडंडी झाड़ियों से ढकी हुई, जाती है
बहुत दूर, छुपते छुपाते, उस जगह
जहाँ पर उतरती है सुरमयी
शाम, ऊँचे ऊँचे पेड़
की परछाइयां,
सहसा
जी
उठते हैं एक दूसरे को छूने के लिए, उन - -
निस्तब्ध पलों में हमारे दरमियां,
दस्तक देते हैं जल प्रपात
की रहस्यमयी कुछ
सरगोशियां,
धूसर
पर्वतों में दिन का सफ़र होता है तमाम,
उस जगह पर हमारे सिवा कोई
नहीं होता, जहाँ पर उतरती
है सुरमयी शाम। उन
निझुम पलों में
ज़िन्दगी
छूना
चाहती है प्रणयी अन्तःस्थल, ईशान - -
कोण में उभरते हैं धीरे धीरे कुछ
मेघ दल, हवाओं के साथ
उड़ आते हैं हज़ार
ख़्वाहिशों के
चिरहरित
जंगल,
कुछ ख़्वाबों के कोष खुलने को होते हैं
तब बेक़रार, रेशमी गुच्छों से
उभर कर रात करती है
तब ज़िन्दगी का
स्वागत, जिस्म
को मिलता
उन पलों
में इक
पुरसुकूं आराम, तितलियों के नाज़ुक
परों पर लिखा होता है कहीं
तुम्हारा मधुर नाम !
* *
- - शांतनु सान्याल
















09 अगस्त, 2022

अस्वीकृत चिट्ठी - -

उस अथाह गहराई तक उतरना चाहूंगा, जहां
लफ़्ज़ों का तिलिस्म थक जाए, एक
एहसास जो ख़ामोश रह कर
भी दिल की परतों को
खोल दे, जो आज
तक कोई न
कह सका
वो बात
सरे आम बेझिझक सभी से बोल दे, मैं न - -
चाह कर भी आज, इस पल, तुम से
क्षमा चाहता हूँ ताकि तुम्हारे
दिल में नफ़रतों का
उठता हुआ
बवंडर
रुक
जाए, उस अथाह गहराई तक उतरना चाहूंगा,
जहां लफ़्ज़ों का तिलिस्म थक जाए।
तुकबंदियों से कहीं मीलों दूर हैं,
संवेदनाओं की दुनिया,
कुछ जुगनुओं की
टिमटिमाहट
में खेलते
हैं अर्द्ध
नग्न बच्चे, मासूम सीने के पृष्ठों में, कहीं - -
आबाद हैं मानव बस्तियां, टूटते ख़्वाबों
से कोई कह दे कि बिखरने से पहले,
नम पलकों पर इक शबनमी
फ़ाया रख जाए, उस
अथाह गहराई
तक उतरना
चाहूंगा,
जहां
लफ़्ज़ों का तिलिस्म थक जाए। चाँद के अक्स
से पेट की भूख नहीं थमती, ख़ुदा के लिए
झुलसा हुआ ख़्वाब न दिखाए कोई,
ख़ाली मर्तबानों में हैं बंद,
छतों की नरम धूप,
अर्थहीन है इस
पल चाहतों
को पुनः
सेंकना,
शब्दों के खेल से यूँ बारहा दिल को न बहलाए
कोई, मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा राहतों
का झूठा ख़त, नामावर से जा कहे
कोई, दहलीज़ पे ही वो रुक जाए,
उस अथाह गहराई तक
उतरना चाहूंगा,
जहां लफ़्ज़ों
का
तिलिस्म थक जाए - -
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

 
















07 अगस्त, 2022

जी उठेंगे इक दिन - -

हम लापता ज़रूर हैं लेकिन विलुप्त नहीं,
प्रवासी पक्षियों के साथ एक दिन
लौट आएंगे, हमारा इंतज़ार
करना, हम अदृश्य हैं
लेकिन गुप्त
नहीं, हम
लापता
ज़रूर हैं लेकिन विलुप्त नहीं । परछाइयों
के शहर में झांकती हैं कुछ रौशन -
दान की रौशनी, अंधेरों का
गणित अपनी जगह
है यथावत, दो
दिन की
होती
है
सिर्फ़ रुपहली चाँदनी, पल भर के लिए
हम ने मूंदी है पलकें, सीने का
आग्नेय गिरि लेकिन
विसुप्त नहीं,
हम लापता
ज़रूर
हैं
लेकिन विलुप्त नहीं । मुकुट विहीन है
ज़िन्दगी तो क्या हुआ, पतझर
केवल किसी एक के लिए
आख़री वसीयत
तो नहीं, वो
सभी
सूखी टहनियों में कुछ ख़्वाब अभी तक
हैं ज़िंदा, ये ज़मीं और खुला खुला
सा आसमां किसी एक शख़्स
की मिल्कियत तो नहीं,
ओझल हैं बहरहाल
ज़माने की
नज़र
से,
जी उठेंगे ज़रूर इक दिन, हम कोई - -
पत्थर अभिशप्त नहीं, हम
लापता ज़रूर हैं लेकिन
विलुप्त
नहीं ।
**
- - शांतनु सान्याल  

   
 




04 अगस्त, 2022

उजान देश की ओर - -

हो चाहे सघन बरसात की रात, या धूसर
ग्रीष्म आकाश, सतत प्रवाहित हो
तुम, कभी पारापार अंतहीन,
और कभी संकुचित
जलधार, तुम्हें
नहीं ज़रा
भी
कोई अवकाश, हो चाहे सघन बरसात की
रात, या धूसर ग्रीष्म आकाश। तुम्हें
बांधने की तमाम कोशिशें होती
हैं विफल, फिर भी स्पृहा
तंतुओं से हो कर तुम
सतत अदृश्य
बहते हो,
कभी इस मोड़ से मुड़ कर कभी भंवर पथ
से हो कर अनजान किनारों से गुज़रते
हो, स्पृहा तंतुओं से हो कर तुम
सतत अदृश्य बहते हो। इस
बहाव यात्रा की मंज़िल
का पता कोई भी
नहीं जानता,
मौन सभी
अपनी
जगह पड़े रहते हैं, अर्द्ध डूबे हुए जर्जर घाट,  
उदासीन संध्या की नीरवता, दूर तक
उठता हुआ धुआं, अवहेलित
टूटी हुई नाव, स्मृतियों
की उम्र होती है
बहुत छोटी,
सभी
उभरे हुए द्वीप एक दिन क्रमशः हो जाते
हैं शून्य सपाट, मौन सभी अपनी
जगह पड़े रहते हैं, अर्द्ध डूबे
हुए जर्जर घाट।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 



02 अगस्त, 2022

अपरिभाषित पल - -

 

मायामृग की तरह भटका हूँ मैं सघन अरण्य
से ले कर विस्तृत आकाश गंगा के रास्ते,
फिर भी अशेष ही रही नील मायावी
रात्रि, झरते हुए निशिगंधा के
फूल, अंतहीन सुरभित
अभिलाष, चक्रमध्य
से ले कर अनहद
तक किया,
उन्हें
तलाश, अनबुझ ही रही फिर भी जीवन की
प्यास, तट बदलती नदी हो या अपलक
निहारती यामिनी, दूर तक थी
असीम शून्यता, जा चुके
थे सभी दिगंत पार,
जीवन के सह -
यात्री, फिर
भी
अशेष ही रही नील मायावी रात्रि । कस्तूरी
गंध की तरह हैं उन्मत्त सभी जीवन की
चाहतें, टीस की अंध गहराइयों में
खोजता हूँ, बेवजह ही मैं पल
भर की राहतें, किसे क्या
मिला या न मिला  
सब कुछ है
लिखा
हुआ,
नियति की है अपनी ही मजबूरी, कभी मिले
ऐसे के बिछड़े ही न थे, कभी लोगों ने
ख़ुद ही बनायीं सहस्त्र कोस की
दूरी, कभी हुई सघन वृष्टि
जिसकी कोई उम्मीद
न थी, और कभी
लौट आई
सारा
शहर घूम के, फिर भी सूखी की सूखी ही रही
मेरे मन की रंगीन छतरी, फिर भी अशेष
ही रही नील मायावी
रात्रि।
* *
- - शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past