ये मुमकिन न था किसी के लिए यूँ
दुनिया ही भूला देना, दामन अपना
हमने ख़ुद ही समेट लिया, रिश्ते वक़्त
के साथ इक दिन ख़ुद ही सिमट गए,
ये और बात थी की शमा बुझ के भी
जलती रही उम्रभर, इंक़लाब उठा था
हरीक हायल की मानिंद, देखे थे हमने
मुख्तलिफ़ अल्मशकाल के सपने भी,
रोटियां, पक्के मकानात, चिलमन से
झांकते ताज़ारुह मुस्कराहटें, खुशनुमां
ज़िन्दगी, माँ के आंसुओं में हमने कभी
देखी थी तैरतीं बूंदों की क़स्तियां, आँचल
से पोंछते हुए कांपते हाथ,दरवाज़े पे खड़ी
वो तस्वीर, जो अपना ज़ख्म कभी किसी को
दिखा न सकी, सूनी कलाइयों में पुराने दाग़,
जो कभी भर ही न पाए, घर से निकलते हुए
बहुत चाहा कि इक नज़र देख लें ज़िन्दगी,
लेकिन हर ख्वाहिश की तवील उम्र नहीं
होतीं, उस आग में झुलसने की जुस्तज़ू थी
सदीद, जलते रहे रात दिन, मिटते रहे
लम्हा लम्हा, जब उस क़िले के मीनारों में
परचम उड़े, हम स्याह कोने पे थे कहीं पड़े,
हमें मालूम ही न चला कब और कैसे
हम हासिये से निकल ज़मी पे बिखर गए,
उस आग ने शायद उन ख्वाबों को भी जला
दिया, अब हम ख़ुद से पूछते हैं इंक़लाब ओ
आज़ादी के मानी, खाख में मिलने का सबब !
तलाशते हैं अपना इक अदद ठिकाना कि
रात है बेरहम, ज़िन्दगी मांगती है अपना
हिसाब, हमने क्या दिया और किसने क्या
लौटाया, हमें याद नहीं, मुद्दत हुए आग पे
रख कर हाथों पे हाथ, क़सम खाए हुए -
-- शांतनु सान्याल
हरीक हायल - जंगल की आग
अल्मशकाल -Kaleidoscope बहुरूपमूर्तिदर्शी
मुख्तलिफ़ - विभिन्न