ये ख़ामोशी है, या कोई मत्सूफ़ नज़र
हर एक क़दम पे बहक सा जाए है डगर,
ये ख़ुमारी न डूबा ले जाए मुझे, जिससे
बचता रहा मंजिल- मंजिल, शहर- शहर,
चाहो तो अता कर जाओ जी चाहे सज़ा
न दो मुझे यूँ शहद के नाम पे दर्द ए ज़हर,
आह भी, इक इल्ज़ाम ए आरज़ू सा लगे
सांस भी लेना है मुश्किल, ऐ इश्क़े असर,
कहीं तो होगी इलाज ए मकां, बेचैन जिगर
पल भर तो रुके सही, ऐ बरसात ए क़हर,
-- शांतनु सान्याल
मत्सूफ़ - रहस्यमयी
12 जुलाई, 2011
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बहुत खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंthanks respected sangita di - regards
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