30 जून, 2024

जानबूझ कर विषपान - -

वक्षस्थल का प्रपात, तरंग विहीन हो कर भी 

आँखों से छलकना चाहे, न जाने कितने 

मुखौटों के बाद भी चेहरा अपने 

आप सत्य उजागर करना 

चाहे, ख़्वाहिशों की

भीड़ में खो जाते

हैं अंतरंग

चेहरे,

धुंध भरी वादियों में अक्सर ज़िन्दगी बेवजह

भटकना चाहे, वक्षस्थल का प्रपात, तरंग 

विहीन हो कर भी आँखों से छलकना 

चाहे । इक अजीब सी अनुभूति

देती है प्रणय गंध की सांद्रता,

आग्नेय शपथ के परे होता

है मुहोब्बत का अंतहीन

सफ़र, ये जान के भी

कि इस यात्रा का

अर्थ है भस्मी -

भूत होना,

हर हाल

में 

जीवन उसी के संग जीना मरना चाहे, वक्षस्थल 

का प्रपात, तरंग विहीन हो कर भी 

आँखों से छलकना चाहे ।

- - शांतनु सान्याल


21 जून, 2024

पुनर्प्राप्ति - -

दीर्घ तपते दिनों के बाद, सांध्य वृष्टि 

की तरह तुम्हारी आंखों में कहीं 

राहतों के द्वार खुल से चले 

हैं, निःशब्द निहारते हुए 

यूँ लगे असंख्य 

कविताएं 

तुम्हारे 

अधर तले निशि पुष्प की तरह पुनः 

खिले हैं । इक मीठा सा एहसास

जो बांधे रखता है एक दूजे 

को अथाह गहराइयों 

तक, एक रास्ता

जो रहस्यमय 

हो कर भी

हाथ

बढ़ाए पहुंचता है धुंधभरी खाइयों 

तक । एक हल्का सा मुलायम

स्पर्श शिराओं में घोल जाता 

है अनाम सुरभित लहर,

भटके हुए पथिक

को जैसे मिल 

जाए छूटा

हुआ

अपना घर ।

- - शांतनु सान्याल




भूमिका - -

सूखे पत्तों की नियति जो भी 

हो, लेकिन प्रकृति को पुनः 

जीवन दान देने में उनकी 

भूमिका अपने आप 

में है अप्रतिम !

ग़र समझ

पाए

तो,

तुम फलाने के बेटे हो शायद !

जिनसे मेरी चालीस साल 

की मित्रता है, तुमसे 

कुछ दिल की 

बात साझा 

कर 

सकता हूँ, जितना वक़्त के साथ 

नए चेहरों से मित्रता का 

दायरा बढ़ता चला 

जा रहा है

उतना 

ही 

अदृश्य छतरी के नीचे आश्रय 

का वृत्त भी बढ़ चला है, 

जिस छतरी को 

गुमशुदा सोचा 

था वो 

क्रमशः आकाश हो चला है, 

विस्तृत खुला खुला 

आसमान, दर -

असल टहनी 

से गिरते 

पत्तों

का 

हिसाब कोई नहीं रखता, बस

उसका आख़री ठिकाना

पृथ्वी का एक मुश्त

टुकड़ा होता है,

जिसे छू कर

उसे मोक्ष

मिलती

है ।

- - शांतनु सान्याल 


15 जून, 2024

जन समुद्र मंथन - -

अहरह एक ही हिसाब किताब, अहर्निश एक ही

जवाब, बस जी रहे हैं, यही तो है जीवन का
निर्वहन, शपथ समारोह, सुगंधित फूलों
का स्तवक, स्वागत गीत, मिथ्या -
प्रलोभन, सभी खड़े हैं हाथों
में ले कर सपनों के झुन
झुने, तथाकथित
लोकतांत्रिक
उत्सव का
पुनः
समापन, बस जी रहे हैं, यही तो है जीवन का
निर्वहन । सुर असुर सभी हैं लालायित,
निस्तब्ध हो चुका जन समुद्र मंथन,
अंकों के खेल में जो जीता वही
बना राजन, यथावत रहेगा
हासिए पर प्रजा का
स्थान, अट्टहास
करता रहा
हमेशा
की
तरह सिंहासन, बस जी रहे हैं, यही तो है जीवन
का निर्वहन, अपरिवर्तनशील पंचवर्षीय
भजन कीर्तन ।
- - शांतनु सान्याल

12 जून, 2024

मनोभ्रंश - -

ऐनक है सामने घूरता हुआ, हम तलाशते हैं

उसे न जाने कहाँ कहाँ, कौन रोकता है

ज़िन्दगी को अदृश्य डोर से पीछे,

बिखरे पड़े हैं स्मृति बूंद हर

तरफ़ यहाँ वहाँ । उम्र

के अंतिम पड़ाव

पर रुक जाते

हैं शब्दों के 

जुलुस

बस यही तो है उल्टी गिनती वाला मनोभ्रंश,

मुझे ज्ञात है तुम्हारे उकताहट का रहस्य,

मिठास में बंधा हुआ मद्धम विष 

दंश । तुम जानते हो अच्छी

तरह से मेरी दुर्बलताओं

के कारण, रिक्त थाल

पर बिखरा पड़ा 

है इंद्रधनुषी 

आवरण ।

- - शांतनु सान्याल


03 जून, 2024

नख चिन्ह - -

देह पर रह जाते हैं वक़्त के नख चिन्ह, जीवन 

फिर भी खड़ा रहता यथावत मौन वृक्ष की 

तरह, व्याघ्र छोड़ जाते हैं अपनी सत्ता

के क्रूर निशान, उस पार बहती है 

मायावी कोसी नदी, जीने की

अदम्य इच्छा का कभी 

नहीं होता अवसान, 

फिर सुबह जाग

उठेगा सारा

जन -

अरण्य, पुनः बिछाई जाएगी शतरंज की बिसात,

बढ़ते हुए जुलूस में फिर मोहरें तलाशे जाएंगे,

क्रमशः आतिशबाज़ी में दब के रह जाएंगे 

सभी ख़्वाब, सभी अरमान, कुछ भी

नहीं बदलेगा, वही सियासत के

नाख़ून वही कराहता हुआ

जिस्म ओ जान, जीवन

फिर भी खड़ा रहता 

यथावत मौन 

वृक्ष की 

तरह, व्याघ्र छोड़ जाते हैं अपनी सत्ता के क्रूर 

निशान ।

- - शांतनु सान्याल



02 जून, 2024

छायाहीन - -

चल रहा हूँ छायाहीन दरख़्तों के नीचे बिल्कुल

अकेला, मैंने सभी हरित पल लौटा दिए

तुम्हें, याद की शाखाओं में बस छूट 

गए कुछ जुगनुओं के आलोक

कण, निःस्व होने के बाद

जनशून्य सा लगे है

सुदूर ख़्वाबों

का मेला,

चल रहा 

हूँ छायाहीन दरख़्तों के नीचे बिल्कुल अकेला ।

इस ढलान के आख़री मोड़ पर कहीं हुआ

करता था एक गुलमोहर का पेड़, क़रीब

से आज भी बहती है अरण्य नदी, 

जिस के सीने में कहीं सूख

चुका है पुरातन सजल

स्रोत, किनारे में 

बस आबाद

हैं भट -

कटई

के पौधे, रेत पर बिखरे पड़े है हिंस्र पद चिन्ह,

असमाप्त रहता है आखेट का खेल, बस

मौसम के साथ जीवन भी बदलता है 

पोशाक, कभी सिंदूरी सुबह और

कभी रहस्यमय साँझ की बेला, 

चल रहा हूँ छायाहीन 

दरख़्तों के नीचे 

बिल्कुल

अकेला ।

- - शांतनु सान्याल


अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past