न जाने कौन, जो देता है दस्तक अँधेरा -
घिरते, शाम ढलते इक चिराग़
जैसे जला जाता है, दिल
की वीरान बस्ती
में, बारहा
लौट आती है मेरी रूह, तर्ज़ बाज़गश्त !
पुरअसरार वादियों का बदन
छू कर, न जाने क्या
है छुपा, उन
आँखों
की गहराइयों में, महकते हैं जज़्बात रात
गहराते, उठते हैं दिल की धड़कनों में
रह रह कर ख़ुशबुओं के, ठहरे
हुए तूफ़ान अनगिनत !
फ़िर ख़्वाबों में
भटकती
है ज़िन्दगी हमराह कहकशाँ, बहोत दूर
तलक, जहाँ मिलती है नदी की
मानिंद, ये गरेज़ान शब !
सीने में दबाए राज़
गहरे, सुबह के
समंदरी
आग़ोश में, लबरेज़ कोई रूह ख़ानाबदोश
की मानिंद - -
* *
- शांतनु सान्याल
घिरते, शाम ढलते इक चिराग़
जैसे जला जाता है, दिल
की वीरान बस्ती
में, बारहा
लौट आती है मेरी रूह, तर्ज़ बाज़गश्त !
पुरअसरार वादियों का बदन
छू कर, न जाने क्या
है छुपा, उन
आँखों
की गहराइयों में, महकते हैं जज़्बात रात
गहराते, उठते हैं दिल की धड़कनों में
रह रह कर ख़ुशबुओं के, ठहरे
हुए तूफ़ान अनगिनत !
फ़िर ख़्वाबों में
भटकती
है ज़िन्दगी हमराह कहकशाँ, बहोत दूर
तलक, जहाँ मिलती है नदी की
मानिंद, ये गरेज़ान शब !
सीने में दबाए राज़
गहरे, सुबह के
समंदरी
आग़ोश में, लबरेज़ कोई रूह ख़ानाबदोश
की मानिंद - -
* *
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें