है ज़रा सा वादा ख़िलाफ़,
अपने अंदर से बाहर
निकल आना,
इतना भी
नहीं आसां, हर इक वजूद - -
रखता है अपना ही
पोशीदा लिहाफ़ !
न दोहराओ,
फिर वही
उम्र भर जीने मरने की बातें,
पल भर की मुलाक़ातों
से नहीं मुमकिन,
यूँ रूहों का
मिलाप।
ये नेह के नाज़ुक बंधन हैं या
रस्म ए दुनिया की जंज़ीरें,
इक अनजाने
रस्साकसी
में जकड़े हुए से हैं हम और - -
आप।
* *
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें