बहुत कुछ कह चुका फिर भी बहुत कुछ
कहना है बाक़ी, अभी अभी सांध्य
प्रदीप जले हैं चौबारों में, अभी
तक नदी के सीने में है
मौजूद सूरज के
कुछ रक्तिम
पदचिन्ह,
अभी
तो है ये प्रारंभ, अंतरतम स्रोत का मंथर
गति से तमाम रात गुज़रना है बाक़ी,
बहुत कुछ कह चुका फिर भी
बहुत कुछ कहना है
बाक़ी । हमारे
मध्य का
सेतु
जोड़े रखता है किनारे की उथल पुथल को,
वो प्रेम है या स्पृहा, अपरिभाषित कोई
नेह बंधन, जो भी हो, हमें रखता है
बांधे एक दूजे के अंदर तक,
अंकुरित बीज की तरह
अभिलाष रहते हैं
भूगर्भस्थ, कुछ
और गहनता
बढ़े कुछ
और
सपनों को पंख लगे, ओस बूँदों के संग मिल
कर ख़ुश्बू की तरह अंतर्मन में अभी
घुलना है बाक़ी, बहुत कुछ कह
चुका फिर भी बहुत कुछ
कहना है बाक़ी ।
- - शांतनु सान्याल
बेहतरीन कविता।
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