गुम होते होते आख़िर में कुछ भी नहीं बचता खोने के लिए, ख़ुद को उजाड़ कर चाँद,
बिखेर जाता है चाँदनी हर तरफ,
गली कूचों से निकल दिल
के अंध कोनों तक,
बारिश में भीगी
हुई वादियाँ
भेजती
हैं चिट्ठियाँ, शेष रात्रि, रिक्त हाथों में कुछ भी
नहीं बचता स्वप्न बीज दोबारा बोने के
लिए, गुम होते होते आख़िर में कुछ
भी नहीं बचता खोने के लिए ।
निर्जला मैदान में कोई
निःसंग पखेरू, न
जाने किस
अज्ञात
करुण
सुर में गीत गाता रहा, क्रमशः उसकी आवाज़
भी छायापथ में कहीं खो गई, सभी स्वप्न
कल्पनाएं इसी तरह दूरवर्ती किसी
महाशून्य में खो जाएंगे, प्रतिश्रुति
के तमाम मोती बिखरे पड़े
रहते हैं धरा की गोद में
बस हम नहीं होते
हैं उन्हें करीने
से पिरोने
के लिए,
गुम होते होते आख़िर में कुछ भी नहीं बचता
खोने के लिए ।
- - शांतनु सान्याल
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शुक्रवार 16 मई 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंपेंटिंग
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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