07 मई, 2020

निरुपाय हर एक चेहरा - -

कुछ भी नहीं वश में अपने,
चाहे हो दो गज़ ज़मीं या
मुट्ठीभर आसमान,
तुम भी हो
परदेशी
मुसाफ़िर, मेरा भी नहीं यहां
कोई चिरकालिक स्थान ।
परिभाषाओं का क्या,
धुंध की तरह
अक्सर
बदलते हैं वादियों का रुख,
कभी बिखरे नदिया
कगार, कभी
पहाड़ों सी
ऊंची
उड़ान । विलिनता ही है - -
इस जीवन का एकमेव
शाश्वत - सत्य, फिर
क्यूँ हो हम इतना
आंतकित,
ख़ुद के सिवा कोई नहीं - -
दे हमें यहां अभयदान ।
उदय के साथ
अदृश्य
चले हमेशा सूरज का चिर
अवसान ।
- - शांतनु सान्याल






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