उस पार, जो लुभाती है
मुझे जुगनुओं के
द्वीप की तरह
हर बार,
मेरा जिस्म होना चाहे कोई
विस्मृत, पुरातन मंदिर,
तुम विशालकाय
बरगद बन
पाओ
अगर इक बार, मुझे तुम्हारे
आवर्त में है जीना मरना,
नहीं चाहिए छद्मवेशी
ये संसार, ये सही
है कि हर एक
के भाग्य
में नहीं
मोंगरे की तरह खुल के - -
महकना, हर्ज़ क्या है
आख़िर माटी गंध
हो जाना कभी
कभार,
देह मेरा है ढहता कोई प्राचीर,
ढहने दो इसे यूँ ही वक़्त के
साथ, हो सके तो ढक लो
मुझे अपने मरहमी -
शैवाल से
आरपार ।
- शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 06 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएं, हर्ज़ क्या है
जवाब देंहटाएंआख़िर माटी गंध
हो जाना कभी
कभार!!
यही जीवन का सबसे बड़ा ।सुंदर रचना शांतनु जी !!
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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