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के अब बहलने की उमर नहीं
हमारी, इक मीठा सा है
ख़ुमार रूह की
गहराइयों
तक,
वो नशा जो चेहरे तक आ
के सिमट जाए, वो
चाहत अपने
आप उतर
गई
सारी । चाँदनी का लिबास
ओढ़े कब तक इंतज़ार
करे कोई, झरते
फूलों के
साथ
आख़िर, ये रात भी यूँ ही सो
गई बेचारी, तर्जुमा है
बहोत मुश्किल,
रहने दे गुम,
तहे -
निगाह भूली हुई दास्ताँ हमारी।
- - शांतनु सान्याल
बहुत उपयोगी रचना।
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