न जाने कितने घुमरी छुपाए सीने में नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर, वो कभी सुप्त
अग्नि तो कभी हिम -
नद सी है गहन
स्थिर, बहुधा
प्रवहमान्
लहरों
के
संग ले जाए सुदूर अपने समानांतर, न
जाने कितने घुमरी छुपाए सीने में
नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर । कोई वशीकृत
पंछी की तरह मैं पंख
अपने कटवाना
चाहूँ, चाह
कर भी,
न
खुले आसमान में उड़ना चाहूँ, वो प्रणय
जाल है या मोह का कण्टक वन,
जितना उभरूँ उतना डूबता
जाऊँ, कदाचित नदी
जाने है कोहरे में
लिपटे हुए
रहस्यमय
जंतर मंतर, न जाने कितने घुमरी छुपाए
सीने में नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर ।
- - शांतनु सान्याल
अंतस्सलिला प्रवाहमान यह जीवन सुमुधर धार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
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