दृश्यहीन हो कर भी तुम जुड़े हुए हो बहोत अंदर तक,
इक नदी ख़ानाबदोश बहती है पहाड़ों से समंदर तक,
तुम चल रहे हो परछाई की तरह अंतहीन पथ की ओर,
जाग चले हैं एहसास, बियाबान से ले कर खंडहर तक,
ये नज़दीकियां ही जीला जाती हैं अभिशप्त पत्थरों को,
डूबती हुई कश्तियों को खींच लाती हैं संग ए लंगर तक,
न जाने कहाँ कहाँ लोग ढूंढते हैं राज़ ए सुकून का रास्ता,
लौटा ले जाती हैं वो ख़ामोश निगाहें मुझे अपने घर तक,
इक अद्भुत सी मंत्रमुग्धता है उसकी रहस्यमयी छुअन में,
राहत ए मरहम हो जैसे कोई सुलगते क़दमों के सफ़र में ।
- - शांतनु सान्याल
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