ताशघर की तरह बिखरे पड़े हैं कांच के ख़्वाब, आईना चाहता है नीरव पलों के उन्मुक्त जवाब,
आख़री पहर रात का जिस्म उतर गया सूली से,
भोर से पहले क़फ़न दफ़न हो जाएगी कामयाब,
तमाम नक़ली मुखौटे उतर जाएंगे सुबह के साथ,
हृदय तट पर बिखरे पड़े रहेंगे मृत सीप बेहिसाब,
अख़बार के पन्नों में उसका ज़िक्र कहीं नहीं मिला,
सारे शहर में यूं कहने को था वो इक मोती नायाब,
इस दुनिया का अपना अजीब है रवायत ए इंसाफ़,
एक हाथ में स्वर्ण मुद्रा तो दूजे में है पवित्र किताब,
- - शांतनु सान्याल
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