उस गलि के अंत में दिखता है डूबते सूरज का मंज़र, बेइंतहा चाहतें हैं बाक़ी बेक़रार दिल के बहोत अंदर,
उन सीढ़ियों के नीचे उतरना है हर एक को एक दिन,
अभी से क्यूं जाऊं उधर अभी ज़िन्दगी है बहोत सुंदर,
निगाहों में कहीं बहती है इक उजालों की स्रोतस्विनी,
मंज़िल ख़ुद हो जब रुबरु क्यूं कर भटकूं इधर - उधर,
उष्ण दोपहर में भी उस का स्पर्श बने चंदन की परछाई,
उम्र भर का खारापन सोख ले पल भर में प्रणय समंदर,
लौट आएंगे सभी एक दिन ख़ुद से भागे हुए बंजारे लोग,
दिल के सिवाय राहत कहीं नहीं फ़क़ीर हो या सिकंदर ।
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 16 फरवरी 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंशुभ इतवार।
वाह
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