25 नवंबर, 2024

नज़रअंदाज़ - -

पतझर के पत्तों की तरह झर जाते हैं सभी चाहत,

उम्र की गोधूलि में कोई भी साथ नहीं होता,
कुछ संभावनाएं रह जाती हैं शून्य
टहनियों में ज़रूर, जो ख़्वाबों
को मरने नहीं देती, ओस
बून्द की चाहत में
जागते हैं
अदृश्य
कोपल तमाम रात, सर्द रातों में उष्ण हथेलियों का
स्पर्श जीला जाता है सुबह तक, ज़िन्दगी हर
हाल में प्रतीक्षा करती है सूरज की प्रथम
किरण, खिलते हुए गुलाब की
पंखुड़ियों में कहीं रुकी
रहती है उम्मीद की
बून्द, आइने की
धूल हटाते
हुए हम
निहारते हैं अपना बिम्ब, चाहते हैं नई शुरूआत, - -
भूलना चाहते हैं उम्र का अंकगणित, अतीत
का हिसाब किताब, पाने खोने के खेल,
जटिल रिश्तों के भूल भुलैया, हम
जीना चाहते हैं सरल रेखा
की तरह अंतहीन, ये
और बात है कि
हम सफल
हो पाते
भी हैं
या नहीं, फिर भी हम मुस्कुराते हुए क़ुबूल करते हैं
वर्तमान को यथावत, दरअसल हर चीज़ के
लिए विकल्प मिलना आसान नहीं, इसी
एक बिन्दु पर आ कर हम मध्यम पथ
का करते हैं अनुसरण, दिल के
दरख़्त में सजाते हैं नाज़ुक
पत्तियां, देह की
शाखाओं
को कर
जाते
हैं जान बूझकर नज़रअंदाज़ - -
- - शांतनु सान्याल

24 नवंबर, 2024

कुछ पलों की चाहत - -

 कुछ देर काश और ठहरते, कुछ गिरह ए ताल्लुक़ात

ज़रा और भी खुलते, दूर तक बहते बहते कहीं
किसी मोड़ पर दो स्रोत अंदर तक एक दूजे
से मुक्कमल जा मिलते, कुछ देर काश
और ठहरते । प्रकाश स्तम्भ और
लहरों के मध्य एक मौन संधि
ज़रूरी है, कितना
कुछ क्यूं न हो
हासिल
इस
मुख़्तसर ज़िन्दगी में, मुहोब्बत के बग़ैर हर चीज़
अधूरी है, काश कुछ और उम्र की मियाद बढ़
जाए, हम बारहा तुम पर ही मरते, तुम्हारे
इश्क़ में जां से हज़ार बार गुज़रते,
कुछ देर काश और ठहरते ।
साहिल की अदृश्य
इबारतें उभरती
हैं दिगंत के
सप्त
रंगों में, गूँजती हैं प्रतिध्वनियां सुदूर माया मृदंगों
में, ये और बात है कि हम रहें न रहें फिर भी
हमारी दास्तां रहेगी मौसमी उमंगों में,
काश कुछ दूर और ज़िन्दगी के
सफ़र में एक संग निकलते,
चाँदनी रात में कुछ और
निखरते, कुछ और
भी महकते,
कुछ देर काश और ठहरते - - -
- - शांतनु सान्याल







ख़्वाब दर ख़्वाब - -

ख़्वाब दर ख़्वाब ज़िन्दगी तलाशती है

नई मंज़िलों का ठिकाना, वो
तमाम खोल जो वक़्त
के थपेड़ों ने उतारे,
उन्हीं उतरनों
को देख,
चाहता हूँ ख़ुद को यूँ ही भूल जाना,
कुछ पल जो पत्तों के नोक
पर थे ओस बून्द की
तरह अस्थिर,
रात ढले
पिघले
हुए मोम पर बिखरा पड़ा था इश्क़ ए
ख़ज़ाना, न जाने कौन सूंघ गया
सारे शहर को दूर तक है
अंतहीन ख़ामोशी,
किसे आवाज़
दें कौन
भला
समझेगा दिल का नज़राना, हर किसी
को चाहिए जिस्म ओ जां की
दुनिया, निरंतर लेन देन,
मुश्किल है उन्हें रूह
से रुबरु
मिलवाना ।
- - शांतनु सान्याल

23 नवंबर, 2024

विस्मृत दस्तक


रात के तमाम पर्दे क्रमशः उठे और गिर गए,
आकाश समेट गया नीला आलोकित
शामियाना, सुदूर कोहरे में खड़ी
है लाजवंती सुबह, कुछ पल
की नीरवता, पुनः जीवन
का है मैराथन, अलिंद
के देह को छूती
हुई ऊपर
उठ
चली है मोर्निंग ग्लोरी की नाज़ुक बेल, हाथों
में अख़बार लिए उसे निर्मिनेष तकना
है एक सुखद एहसास, जैसे कोई
मासूम बच्चा रैलिंग के मध्य
से देखना चाहे उड़ते
हुए कबूतरों का
समूह, कुछ
भटकी
हुईं
पीली तितलियां, कुछ विस्मृत दस्तकों के शब्द
तलाश करते हैं तुम्हारा बिम्ब, सीने के अथाह
गहराई में, शीर्षक के सिवाय कुछ पढ़ने
की अब ख़्वाहिश नहीं होती ।
* *
- शांतनु सान्याल

22 नवंबर, 2024

रेशमी नज़दीकियां - -

कोहरे में डूबे हुए हैं दूर तक फूलों की घाटियां,
एक हलकी सी सरसराहट अभी तक है 
ज़िन्दा हमारे दरमियाँ, कोई ख़्वाब
या अधूरी जन्म जन्मांतर की
प्यास, देह को लपटे हुए
हैं जैसे ख़्वाहिशों के
अमरबेल, जीवंत
हैं अभी तक
महकी
हुईं
चाँदनी रात में मुहोब्बत की परछाइयां, एक 
हलकी सी सरसराहट अभी तक है ज़िन्दा 
हमारे दरमियाँ । पारदर्शी खिड़कियों
के धरातल पर जमें हुए से हैं
उष्ण साँसों के वाष्प, या
जी उठे हैं गुज़रे हुए
मील के पत्थर,
शीशे के
सीने
पर
फिर तुमने उकेरा है मेरा नाम, सर्द रातों में -
अधर तले, पुनः जाग उठे हों जैसे बिंदु
बिंदु मधुमास, कश्मीरी शाल में गुथे
हुए हैं देह गंध के मीठे एहसास,
जीवित हो चले हैं फिर एक
बार रेशमी नज़दीकियां,
एक हलकी सी 
सरसराहट 
अभी 
तक है ज़िन्दा हमारे दरमियाँ - -
- - शांतनु सान्याल 



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