29 दिसंबर, 2018

अंतर - गहन - -

पुरोहित की है अपनी बेबसी, शाम गहराते ही
बंद हो गए मंदिर के दरवाज़े, ख़ामोश
हैं सभी, पृथ्वी हो या आकाश,
सिर्फ़ अंतर गहन सारी
रात है जागे।
मरूस्वप्न सा है ये जीवन, या कल्पतरु से - -
लटके हुए असंख्य अभिलाष, कोहरे में
लिपटी हुई मेरी चाहत, निकलना
चाहे सुबह से कहीं आगे।
नवीन - पुरातन का
द्वंद्व
सनातन, जन्म - मृत्यु का अदृश्य पुनरावर्तन,
मोह - बंधन चाहे जितना तोड़ें, उतना
ही प्रियवर अपना लागे।  ख़ामोश
हैं सभी, पृथ्वी हो या आकाश,
सिर्फ़ अंतर - गहन सारी
रात है जागे।

* *
- शांतनु सान्याल

19 दिसंबर, 2018

तितलियों के हमराह - -

सफ़र ज़िन्दगी का नहीं - -
रुकता किसी के
लिए,
टिमटिमाते से दूर रह
जाते हैं छूटे हुए
स्टेशन,
एल्बम के पन्नों में कहीं,
दबी छुपी सी है वो
हंसी,
तितलियों के हमराह खो
जाते हैं सभी बचपन।
बंद दरवाज़े
के पार
मुंतज़िर नहीं अब कोई
दस्तक, तन्हाइयों
के झुरमुट में,
मैं हूँ
और मेरी धड़कन। वादियों
के सीने से, फिर उठ
चले हैं धुंध के
बादल,
न जाने आग है या बारिश,
ख़ामोश है क्यूँ दरपन।
तमाम रात
तलाशता
रहा
मजलिस ए आसमान, फिर
भी ढूंढ़ न पाए कोई
मेरा गुमशुदा
लड़कपन।

* *
- शांतनु सान्याल


10 दिसंबर, 2018

कटु सत्य है लेकिन - -

रात गहराते ही निशि पुष्पों ने
वृन्त छोड़ दिया, हवाओं
की मनःस्थिति
समझना
आसान नहीं, गंध चुरा के फूलों
का सुबह से नाता जोड़ दिया।
कोई नहीं रुकता किसी
के लिए ये कटु
सत्य है,
उगते ही सूरज के अंधेरों से - -
रिश्ता तोड़ दिया। जीवन -
मरण का आलेख,
अनवरत धुंध
भरा,
इसीलिए जीवन वक्र को सीधे
राह मोड़ दिया। अब चाहे
कोई, जो भी समझे
कुछ अंतर नहीं,
जो मन
को करे अशांत ऐसी चाहत छोड़ -
दिया।

* *
- शांतनु सान्याल 
 

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