नीरव वसुधा, निस्तब्ध रजनी
हिय चंचल गुंजरित, मेघ बिन दामिनी /
मधु मालती महके, निशि पुष्प वृंत
अभिसारमय चर अचर, राग रागिनी /
पथ निहारत, अंग प्रत्यंग अकुलाय
शशि मुख मेघ, जस नभ अभिमानी /
पग विचलित, चलत अंचल ढल जाय
बैरन दर्पण, प्रतिबिम्ब अगन लगाय
देह मुर्छितमय, दंश करत मधु यामिनी //
--- शांतनु सान्याल
27 अगस्त, 2010
इक ख्याल
इक ख्याल की, की हर शख्स को मिलता
उसके दामन से ज़रा जियादा
इक ख़्वाब जो देखा था कभी
मिल कर बाँट लें रंज ओ अलम अपने
उस मोड़ पे तुमने क़सम तोड़ी
इस राह में हमने क़सम खाई
मिले न मिले मंजिल कोई ग़म नहीं
तनहा हूँ तो क्या, दूर कहीं
घुटती साँसों में अब तलक
ज़िन्दगी का अक्स नज़र आता है ,
मुसलसल तीरगी में भी ऐ दोस्त -
तेरा चेहरा नज़र आता है /
- - - शांतनु सान्याल
24 अगस्त, 2010
ज़िन्दगी तलाश करें
दूर टूटते तारों को चलिए तलाश करें
न डूब जाएँ नन्हें अनगिनत जुगनू
अन्तरिक्ष के गहरे धुंधलके में कहीं
क़दम तो उठायें कुछ तो प्रयास करें
कुछ खुशियाँ बाँट लें, दर्द आत्मसात करें
जो छूट गए भीढ़ में तनहा
तक़दीर न बदल पायें तो कोई बात नहीं
इक लम्हा ही सही, ज़रा सोचें
हाथ तो बढ़ाएं, ज़िन्दगी तलाश करें /
-- शांतनु सान्याल
न डूब जाएँ नन्हें अनगिनत जुगनू
अन्तरिक्ष के गहरे धुंधलके में कहीं
क़दम तो उठायें कुछ तो प्रयास करें
कुछ खुशियाँ बाँट लें, दर्द आत्मसात करें
जो छूट गए भीढ़ में तनहा
तक़दीर न बदल पायें तो कोई बात नहीं
इक लम्हा ही सही, ज़रा सोचें
हाथ तो बढ़ाएं, ज़िन्दगी तलाश करें /
-- शांतनु सान्याल
16 अगस्त, 2010
सुदूर सीमान्त
कर ध्वनि,जय घोष, ध्वजारोहण,पुष्पवर्षा दिवसांत
पुनःतिमिर घन रात्रि,दूर बिहान , तन-मन अशांत /
नग्न शिशु, क्षुधित उदर, माँ की ममता भयाक्रांत
क्रन्दित ह्रदय, रिक्त पात्र, असंख्य मुख पुनः क्लांत /
निर्वस्त्र दर्शन,विछिन्न स्वप्न, मिथ्या सर्व सिद्धांत
लाल किला, विहंगम प्रवचन,ख़ाली हाथ तदुपरांत /
मेघाच्छादित नभ, भ्रमित भविष्य सुदूर सीमान्त //
---- शांतनु सान्याल
पुनःतिमिर घन रात्रि,दूर बिहान , तन-मन अशांत /
नग्न शिशु, क्षुधित उदर, माँ की ममता भयाक्रांत
क्रन्दित ह्रदय, रिक्त पात्र, असंख्य मुख पुनः क्लांत /
निर्वस्त्र दर्शन,विछिन्न स्वप्न, मिथ्या सर्व सिद्धांत
लाल किला, विहंगम प्रवचन,ख़ाली हाथ तदुपरांत /
मेघाच्छादित नभ, भ्रमित भविष्य सुदूर सीमान्त //
---- शांतनु सान्याल
10 अगस्त, 2010
छणिका
पलाशमय अम्बर , धूसर गोधुली
अस्तगामी सूरज , शितिज उदास /
झिर झिर सांझ, तुलसी तले दीप ,
यमन मुखरित, पिया मिलन की आश /
सांध्य आरती, धूप धूनी पञ्च प्रदीप,
शिशुमुख संस्कृत श्लोक अनुप्रास /
शारदीय पूर्ण शशि, अभिसार चहुदिश
गृहिणी माथे दमके, सिंदूरवृत्त मधुमास /
मंदिर विग्रह बोलें, हे वत्स लो विश्राम
मधुमय रजनी, अल्प सुखद अवकाश //
-- शांतनु सान्याल
अस्तगामी सूरज , शितिज उदास /
झिर झिर सांझ, तुलसी तले दीप ,
यमन मुखरित, पिया मिलन की आश /
सांध्य आरती, धूप धूनी पञ्च प्रदीप,
शिशुमुख संस्कृत श्लोक अनुप्रास /
शारदीय पूर्ण शशि, अभिसार चहुदिश
गृहिणी माथे दमके, सिंदूरवृत्त मधुमास /
मंदिर विग्रह बोलें, हे वत्स लो विश्राम
मधुमय रजनी, अल्प सुखद अवकाश //
-- शांतनु सान्याल
08 अगस्त, 2010
ग़ज़ल - - जुनूं ए हसरत
न कोई आग न धुंआ ज़िगर जलने का मंज़र ही देख जाते
सुना है वादियों में टूट कर, दूर तलक बरसें हैं फिर बादल
भरे बरसात में शायद, दिल सुलगने का मंज़र ही देख जाते/
साँसें रुकीं रुकीं आह भी मुश्किल निगाहों में डूबतीं परछाइयाँ
बुझते चिराग़ों से सरे आम, दम निकलने का मंज़र ही देख जाते/
सूनी दीवारों में अब तक, महफूज़ हैं कुछ ज़ख्म माज़ी के रंगीन
सीने में सुलगती आग, ओ अश्क बिखरने का मंज़र ही देख जाते /
ओ तमाम खूंआलुदह ख़त जो तुमने कभी लिखे थे इश्क़ में डूब कर
शाखों से टूटते पत्तों की तरह, अलफ़ाज़ गिरने का मंज़र ही देख जाते/
ग़र फुर्सत मिले कभी भूले से ही सही क़ब्र की जानिब जाना
जुनूं ऐ हसरत ये है के, रूह भटकने का तुम मंज़र ही देख जाते /
-- शांतनु सान्याल
सुना है वादियों में टूट कर, दूर तलक बरसें हैं फिर बादल
भरे बरसात में शायद, दिल सुलगने का मंज़र ही देख जाते/
साँसें रुकीं रुकीं आह भी मुश्किल निगाहों में डूबतीं परछाइयाँ
बुझते चिराग़ों से सरे आम, दम निकलने का मंज़र ही देख जाते/
सूनी दीवारों में अब तक, महफूज़ हैं कुछ ज़ख्म माज़ी के रंगीन
सीने में सुलगती आग, ओ अश्क बिखरने का मंज़र ही देख जाते /
ओ तमाम खूंआलुदह ख़त जो तुमने कभी लिखे थे इश्क़ में डूब कर
शाखों से टूटते पत्तों की तरह, अलफ़ाज़ गिरने का मंज़र ही देख जाते/
ग़र फुर्सत मिले कभी भूले से ही सही क़ब्र की जानिब जाना
जुनूं ऐ हसरत ये है के, रूह भटकने का तुम मंज़र ही देख जाते /
-- शांतनु सान्याल
07 अगस्त, 2010
रुधिरांजलि
रुधिरांजलि
रक्त झरित वक्षस्थल, आहत मम देह-प्राण -
दग्ध हस्तों से हे माँ !रुधिरांजलि स्वीकार करें/
गूंजे जय घोष , शंख नाद हो अष्ठ दिगन्तों में
भरतवंशी-सनातनी,शत्रुओंकापुनः प्रतिकार करें/
ऐ धर्म युद्ध नहीं ,है अस्तित्व- समर आव्हान,
हे सुप्त आत्माएं, सहस्त्र बाहू से संहार करें/
विक्षिप्त मातृत्व की चीख है,सुवीर्य का प्रमाण दें,
कंठकहीन हो धरा, सिंह सम निहत बारम्बार करें/
स्वजाति,स्वभाषी,अरण्यवासी, चाहे प्रतिरोध बने
सपथ माँ लज्जा की, भुजंगो पे वार हर बार करें/
खंडित देवालय, रक्त प्लावित प्राचीर पुकारते--
उठो अर्जुन, अभिमनुयों, भग्न स्वप्न साकार करें//
---- शांतनु सान्याल
रक्त झरित वक्षस्थल, आहत मम देह-प्राण -
दग्ध हस्तों से हे माँ !रुधिरांजलि स्वीकार करें/
गूंजे जय घोष , शंख नाद हो अष्ठ दिगन्तों में
भरतवंशी-सनातनी,शत्रुओंकापुनः प्रतिकार करें/
ऐ धर्म युद्ध नहीं ,है अस्तित्व- समर आव्हान,
हे सुप्त आत्माएं, सहस्त्र बाहू से संहार करें/
विक्षिप्त मातृत्व की चीख है,सुवीर्य का प्रमाण दें,
कंठकहीन हो धरा, सिंह सम निहत बारम्बार करें/
स्वजाति,स्वभाषी,अरण्यवासी, चाहे प्रतिरोध बने
सपथ माँ लज्जा की, भुजंगो पे वार हर बार करें/
खंडित देवालय, रक्त प्लावित प्राचीर पुकारते--
उठो अर्जुन, अभिमनुयों, भग्न स्वप्न साकार करें//
---- शांतनु सान्याल
06 अगस्त, 2010
दो शब्द
दो शब्द
इस भग्न देवालय के प्रस्तर हों फिर जागृत /
गोधुली में शंख ध्वनि, तुलसी तले पंचप्रदीप
निर्भय सांध्य आरती हों, उद्घोषित आर्यावृत /
महासिंधु के उच्च तरंगों में गूंजे विजय गान
ऋचाओं द्वारा अभिमंत्रित हों, बरसे ज्ञानामृत /
- शांतनु सान्याल
इस भग्न देवालय के प्रस्तर हों फिर जागृत /
गोधुली में शंख ध्वनि, तुलसी तले पंचप्रदीप
निर्भय सांध्य आरती हों, उद्घोषित आर्यावृत /
महासिंधु के उच्च तरंगों में गूंजे विजय गान
ऋचाओं द्वारा अभिमंत्रित हों, बरसे ज्ञानामृत /
- शांतनु सान्याल
यादों के सायें
तुम न आये,इंतज़ार-ए-शाम ढल गई
हवाओं में वो बात न रही
घटाओं ने रुख मोड़ लिया
फूलों से खुशबु महरूम हुए
चाँद न निकला रात भर
हर शू में थीं इक अजीबसी
बेरुख़ी,साया भी अजनबी सा,
हर सांस थीं सदियों की थकन
निगाहों से ख़्वाब दूर दूर
जिस्म मेरा सलीब पे ठहरा हुआ
ख़ामोशी बेरहम हाथों में
तेज़ नश्तर लिए हुए --
न लब ही हिले, न आह निकली
अँधेरों ने कुछ कीलें और जढ़ दी,
बेजान बदन, आइना भी न देख पाया
लोग कहतें हैं, के इश्क़ में चेहरा
खिल के गुलाब होता है,
मुद्दतों बाद जब उतरें हैं, आज
लड़खड़ाते आईने की जानिब
हमें मालुम भी नहीं के
शीशे का रंग जा चूका है ज़माना हुवा,
ये मेरा चेहरा है या
कोई तहरीर -ए - क़दीम, जिसे आज तक
कोई पढ़ न सका हो,
इक शाम की खूबसूरती और उम्र भर
लम्बी रात, न पूछ मेरे दोस्त
इंतज़ार का आलम
हम हैं या परछाई, क़ाश कोई बताये
शम्स ढलने का मंज़र --
डूबती आँखों में अब तलक, किसी के
यादों के सायें हैं //
-- शांतनु सान्याल
हवाओं में वो बात न रही
घटाओं ने रुख मोड़ लिया
फूलों से खुशबु महरूम हुए
चाँद न निकला रात भर
हर शू में थीं इक अजीबसी
बेरुख़ी,साया भी अजनबी सा,
हर सांस थीं सदियों की थकन
निगाहों से ख़्वाब दूर दूर
जिस्म मेरा सलीब पे ठहरा हुआ
ख़ामोशी बेरहम हाथों में
तेज़ नश्तर लिए हुए --
न लब ही हिले, न आह निकली
अँधेरों ने कुछ कीलें और जढ़ दी,
बेजान बदन, आइना भी न देख पाया
लोग कहतें हैं, के इश्क़ में चेहरा
खिल के गुलाब होता है,
मुद्दतों बाद जब उतरें हैं, आज
लड़खड़ाते आईने की जानिब
हमें मालुम भी नहीं के
शीशे का रंग जा चूका है ज़माना हुवा,
ये मेरा चेहरा है या
कोई तहरीर -ए - क़दीम, जिसे आज तक
कोई पढ़ न सका हो,
इक शाम की खूबसूरती और उम्र भर
लम्बी रात, न पूछ मेरे दोस्त
इंतज़ार का आलम
हम हैं या परछाई, क़ाश कोई बताये
शम्स ढलने का मंज़र --
डूबती आँखों में अब तलक, किसी के
यादों के सायें हैं //
-- शांतनु सान्याल
मनु वंशज
महाकाल रात्रि का अंत, फिर पुनः शंख नाद करो
इस भू के कण कण में पूर्वजों का रक्त समाहित,
रक्त चन्दन माथे में हो, पुनः इसे आजाद करो /
विध्वंस मंदिर के खंडित प्रतिमाएं हों पुनर्जिवीत
मनु वंशज!अश्रु झरित वसुधा को पुनः आबाद करो /
काँपे अंतरिक्ष, चन्द्र, सूर्य, सम्मोहित हो पूर्ण ब्रह्माण्ड
विश्व नत मस्तक हो, पुनः ऐसा जागृत सिंह नाद करो /
-- शांतनु सान्याल
इस भू के कण कण में पूर्वजों का रक्त समाहित,
रक्त चन्दन माथे में हो, पुनः इसे आजाद करो /
विध्वंस मंदिर के खंडित प्रतिमाएं हों पुनर्जिवीत
मनु वंशज!अश्रु झरित वसुधा को पुनः आबाद करो /
काँपे अंतरिक्ष, चन्द्र, सूर्य, सम्मोहित हो पूर्ण ब्रह्माण्ड
विश्व नत मस्तक हो, पुनः ऐसा जागृत सिंह नाद करो /
-- शांतनु सान्याल
अवसान
मंदिर के प्रांगण में ह्रदय मेरा
आज मुक्तिस्नान चाहे-
हो सब कलुषित भावों का अंत
केवल ये वरदान चाहे,
व्यथित, प्रताड़ित,अभिशापित जन
हेतु चिर अभयदान चाहे,
उच्च अट्टालिका के रंगों में मिश्रित
श्वेद कण आज प्रतिदान चाहे,
कुरु वंशज के पापों का इसी धरा में
आज इसी छ्ण अग्निस्नान चाहे,
अधुना भिष्मों का मौन स्वीकार्य नहीं
देश द्रोहियों का इसी पल अवसान चाहे,
--- शांतनु सान्याल
04 अगस्त, 2010
दो शब्द
कुछ स्वप्न मधुर पलकों में बिछे रहने दो --
दीर्घ निशि, मद्धम शशि, बोझिल वातायन
कुछ स्मृति गुच्छ पहलू में खिले रहने दो /
अपने सांचे में न ढाल हर किसी को -
आत्मीयता न सही, हाथ तो मिले रहने दो /
-- शांतनु सान्याल
दीर्घ निशि, मद्धम शशि, बोझिल वातायन
कुछ स्मृति गुच्छ पहलू में खिले रहने दो /
अपने सांचे में न ढाल हर किसी को -
आत्मीयता न सही, हाथ तो मिले रहने दो /
-- शांतनु सान्याल
01 अगस्त, 2010
नज़्म
नज़्म
वो मुहोब्बत जो तुझको दे तस्कीं
दिल की बे इन्तहां गहराई तक
मेरे दोस्त बहोत मुश्किल है
वजूद का का आसमान होना,
झुलसते आँखों में ख्वाब कहाँ
से लायें, दहकते सीने में
शबनमी ठंडक किस तरह पायें
बहुत मुश्किल है -ऐ दोस्त
बरसात का मेहरबान होना ,
बेहतर है लौट जाओ
आसां नहीं सेहरा का गुलिस्तान होना /-- शांतनु सान्याल
वो मुहोब्बत जो तुझको दे तस्कीं
दिल की बे इन्तहां गहराई तक
मेरे दोस्त बहोत मुश्किल है
वजूद का का आसमान होना,
झुलसते आँखों में ख्वाब कहाँ
से लायें, दहकते सीने में
शबनमी ठंडक किस तरह पायें
बहुत मुश्किल है -ऐ दोस्त
बरसात का मेहरबान होना ,
बेहतर है लौट जाओ
आसां नहीं सेहरा का गुलिस्तान होना /-- शांतनु सान्याल
छणिका
ज़रा सी देर
ज़रा सी देर
छणिका
न पूछ मेरी उदासी का सबब, कुछ देर ज़रा शमा जलने दे
गिर न जाएँ पलकों से शबनम, रात और ज़रा ढलने दे /
हर शख्स के हाथों में फूलों के तहरीरें, लब पे तेरा नाम
दिल कैसे तुझको पेश करूँ, दम तो ज़रा निकलने दे /
-- शांतनु सान्याल
ज़रा सी देर
छणिका
न पूछ मेरी उदासी का सबब, कुछ देर ज़रा शमा जलने दे
गिर न जाएँ पलकों से शबनम, रात और ज़रा ढलने दे /
हर शख्स के हाथों में फूलों के तहरीरें, लब पे तेरा नाम
दिल कैसे तुझको पेश करूँ, दम तो ज़रा निकलने दे /
-- शांतनु सान्याल
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