24 फ़रवरी, 2025

अदृश्य बिम्ब - -


अपने अंदर छुपे हुए ग्रंथि का आविष्कार करें,

प्रतिबिंबित परिभाषा को दिल से स्वीकार करें,

न तुम हो पारसमणि न मैं कोई शापित पाषाण,
दर्पण को रख सर्वोपरि आपस में व्यवहार करें,

मिट्टी का देह ले कर पत्थर के शहर में रहना है,
ज़रा सी चोट से सहम जाएं इतना न प्यार करें,

निगाहों की पट्टियां न खुले तराज़ू के झोंकों से,
हृदय तल के खंडित मंदिरों का पुनरूद्धार करें,

एक ही असमाप्त पथ के हम सभी हैं सहयात्री,
दुःख सुख के साए में टूटे स्वप्नों को साकार करें,
- - शांतनु सान्याल


21 फ़रवरी, 2025

पलाश पथ - -

शून्यता के भीतर जो अदृश्य लहर हैं मौजूद

उसी अंध- प्रवाह में तुम्हें करता हूँ मैं तलाश,

भीड़ में खो जाने की कला ही है जिजीविषा
फिर भी लौट आता हूँ अंततः तुम्हारे ही पास,

आकाशगंगा की तरह है चाहतों का अंतरिक्ष
देह - प्राण से हो कर गुज़रता है प्रणय प्रवास,

अक्सर ख़ुद को भुला करते हैं अन्य को याद
दस्तक नहीं होती बस आगंतुक का है क़यास,

इसी पल में निहित है सभी ऋतुओं का आनंद
उल्लसित हृदय के लिए हर दिन रहे मधुमास,

सीमित विकल्प हैं फिर भी गुज़रना है लाज़िम
जीवन के सफ़र में हमेशा नहीं खिलते पलाश ।
- - शांतनु सान्याल

14 फ़रवरी, 2025

राहत - -

उस गलि के अंत में दिखता है डूबते सूरज का मंज़र,

बेइंतहा चाहतें हैं बाक़ी बेक़रार दिल के बहोत अंदर,

उन सीढ़ियों के नीचे उतरना है हर एक को एक दिन,
अभी से क्यूं जाऊं उधर अभी ज़िन्दगी है बहोत सुंदर,

निगाहों में कहीं बहती है इक उजालों की  स्रोतस्विनी,
मंज़िल ख़ुद हो जब रुबरु क्यूं कर भटकूं इधर - उधर,

उष्ण दोपहर में भी उस का स्पर्श बने चंदन की परछाई,
उम्र भर का खारापन सोख ले पल भर में प्रणय समंदर,

लौट आएंगे सभी एक दिन ख़ुद से भागे हुए बंजारे लोग,
दिल के सिवाय राहत कहीं नहीं  फ़क़ीर हो या सिकंदर ।
- - शांतनु सान्याल



05 फ़रवरी, 2025

अनुत्तरित - -

ताशघर की तरह बिखरे पड़े हैं कांच के ख़्वाब,

आईना चाहता है नीरव पलों के उन्मुक्त जवाब,

आख़री पहर रात का जिस्म उतर गया सूली से,
भोर से पहले क़फ़न दफ़न हो जाएगी कामयाब,

तमाम नक़ली मुखौटे उतर जाएंगे सुबह के साथ,
हृदय तट पर बिखरे पड़े रहेंगे मृत सीप बेहिसाब,

अख़बार के पन्नों में उसका ज़िक्र कहीं नहीं मिला,
सारे शहर में यूं कहने को था वो इक मोती नायाब,

इस दुनिया का अपना अजीब है रवायत ए इंसाफ़,
एक हाथ में स्वर्ण मुद्रा तो दूजे में है पवित्र किताब,
- - शांतनु सान्याल

04 फ़रवरी, 2025

दृश्यहीन - -

दृश्यहीन हो कर भी तुम जुड़े हुए हो बहोत अंदर तक,

इक नदी ख़ानाबदोश बहती है पहाड़ों  से समंदर तक,


तुम चल रहे हो परछाई की तरह अंतहीन पथ की ओर,

जाग चले हैं एहसास, बियाबान से ले कर खंडहर तक,


ये नज़दीकियां ही जीला जाती हैं अभिशप्त पत्थरों को,

डूबती हुई कश्तियों को खींच लाती हैं संग ए लंगर तक,


न जाने कहाँ कहाँ लोग ढूंढते हैं राज़ ए सुकून का रास्ता,

लौटा ले जाती हैं वो ख़ामोश निगाहें मुझे अपने घर तक,


इक अद्भुत सी मंत्रमुग्धता है उसकी रहस्यमयी छुअन में,

राहत ए मरहम हो जैसे कोई सुलगते क़दमों के सफ़र में ।

- - शांतनु सान्याल











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