30 दिसंबर, 2024

नए दर्पण के पार - -

अनिमेष दृष्टि लिए गुज़रती है रात, सुदूर दूरगामी

रेलगाड़ी की आवाज़ हो चुकी है लुप्तप्राय,
पटरियों के सीने में है दफ़न वक़्त की
कंपन,हम चल रहे हैं ख़ामोश
शताब्दियों से उसी रास्ते
जहाँ जीवन की होती
है अनवरत क्रमिक
उत्क्रांति, हिम
नदी के
वक्षःस्थल से उभरते हैं द्रवित शैल दहन, पटरियों
के सीने में है दफ़न वक़्त की कंपन । वही
प्रागैतिहासिक जीवन नए रूप रंग
नए परिवेश में, शिकार और
शिकारी के मध्य वही
लुकाछिपी, बहुत
कुछ बदलने
के बाद
भी
वही पुरातन हिंस्र आवेश, कौन किसे कैसे ठगेगा
गिरह दर गिरह रहस्य अशेष, सफ़ेद दीवारों
पर काली परछाइयों का वृन्द नर्तन,
पटरियों के सीने में है दफ़न
वक़्त की कंपन, चेहरे
वही हैं चारों तरफ़
सिर्फ़ बदलता
रहा है नए
साल
का मायावी दर्पण, पटरियों के सीने में है दफ़न
वक़्त की कंपन ।
- - शांतनु सान्याल



26 दिसंबर, 2024

मेरा यक़ीन रखना - -

वो ख़्वाब जो अभी तक ज़िन्दा है जुगनू की

तरह तुम्हारी हथेलियों में दे जाऊंगा,
इक सुबह जो मासूम बच्चे की
तरह दौड़ जाता है दूर तक
रंगीन तितलियों के
पीछे तुम उसी
जगह मेरा
इंतज़ार
करना
यक़ीन जानो इक दिन  मैं लौट के वहीं ज़रूर
आऊंगा, वो ख़्वाब जो अभी तक ज़िन्दा
है जुगनू की तरह तुम्हारी हथेलियों
में दे जाऊंगा । वो सभी सूर्य
मुखी चेहरे आकाश के
अभिमुख होंगे, वो
सभी मुरझाए
चेहरे एक
दिन
खिलेंगे सर्दियों की नरम धूप की तरह, सांझे
चूल्हे की तरह हमारे सुख दुःख होंगे,
अप्रकाशित कविताओं की तरह
संग्रहित हैं दिल की गहराइयों
में विप्लवी खनिज के
अनगिनत उजाड़
खदान, कुछ
मूक
श्रमिकों के समाधिस्थ श्मशान, तुम भूल नहीं
जाना पत्थरीली रास्तों पर चलना, मेरा
विश्वास रखो इक दिन तुम्हें क्षितिज
के पार फूलों की वादियों में
ले जाऊंगा, वो ख़्वाब
जो अभी तक
ज़िन्दा है
जुगनू
की तरह तुम्हारी हथेलियों में दे जाऊंगा ।
- - शांतनु सान्याल 

18 दिसंबर, 2024

अंदरुनी जयचंद - -

विलुप्त नदी के तलाश में मिले कुछ

परित्यक्त मंदिर के खंडहर, कुछ
टूटी हुई टेराकोटा की मूर्तियां,
पाटे हुए प्राचीन जल कूप,
जिस के आसपास
आबाद है यूँ तो
पत्थरों का
शहर,
विलुप्त नदी के तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर के खंडहर । बर्बर
आतताई आए, नगर लूटा, घर
जलाए, तलवार के बल से
धर्म बदला, मंदिरों को
तोड़ कर अपने
ईश्वर का घर
बनाया,
लेकिन पुरातन संस्कृति रही अपनी
जगह अजर अमर, विलुप्त नदी
के तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर के
खंडहर । आज
भी वही प्रथा
है जीवित
वही
क़त्ल ओर ग़ारत, आगज़नी, नारियों
पर अमानवीय अत्याचार, सामूहिक
रक्त पिपासा, वही पैशाचिक
वीभत्स अवतार, फिर भी
सीने पर शान्तिदूत का
तमगा लगाए फिरते
हैं, सामाजिक
समानता
की बात
करते हैं, चेहरे पर असत्य अमृत का
लेप, दिल में भरा रहता है ज़हर
ही ज़हर, विलुप्त नदी के
तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर
के खंडहर ।
आज भी
ज़िन्दा
हैं हज़ारों जयचंद हमारे अस्तित्व के
अंदर ।
- - शांतनु सान्याल

16 दिसंबर, 2024

छायामय - -

अथक, बस बहे जा रहे हैं,

दोनों किनारे चाहते हैं
हमें निगल जाना,
प्रस्तर खण्ड
से टकराते
हुए हमारा वजूद
लिख रहा है रेत पर कुछ नई
कहानियां, हटा रहे हैं हम
कुछ अज्ञात
पृष्ठभूमि
पर
नग्न सत्य की घनी परछाइयां,
अभिलाष का जल तरंग
अब भी बज रहा है
वक्षःस्थल के
गहन में,
शुभ्र
शंख के अंदर छुपा बैठा है
अभी तक जीवंत मोह
तिमिर सघन में,
उभर चले हैं
पुनः
अजस्र बुलबुले जीवन के
धरातल में, बुला रही हैं
हमें स्वप्नमयी अतल
की मायावी अथाह
गहराइयां, हटा
रहे हैं हम कुछ
अज्ञात
पृष्ठभूमि पर नग्न सत्य की
घनी परछाइयां ।
- - शांतनु सान्याल






13 दिसंबर, 2024

रूहानी अनुबंध - -

जी चाहता है बहुत दूर वादियों में

कहीं खो जाना,धुंध भरी राहों
में, बूँद बूँद मुक्कमल बिखर
जाना, तुम्हारी गर्म साँसों
की तपिश में है मंज़िल
ए निशां, इक रूहानी
अनुबंध में हों जैसे
शमअ ओ
परवाना,
डूबता
चला जा रहा है मेरा वजूद अथाह
गहराई में, उस हसीन ख़्वाब
से भला कौन चाहेगा लौट
आना, इस नशीली
एहसास में
ज़िन्दगी
को
क़रार तो मिले, कुछ पल और
ज़रा पास ठहरो फिर चाहे
लौट जाना, यूँही देख
कर बढ़ जाती है
जीने की
शिद्दत
ए तिश्नगी, मंज़िल दर मंज़िल खुल
जाते हैं, निगाह ए मयख़ाना,
जी चाहता है बहुत दूर
वादियों में कहीं
खो जाना ।
- - शांतनु सान्याल

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