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30 मार्च, 2022
28 मार्च, 2022
अनंत साध - -
ज़िन्दगी अक्सर देती है दस्तक
कुछ लम्हों की सौगात लिए,
दहलीज़ पर हो तुम, या
चल रहा हूँ मैं नींद
में इक ख़्वाब
की दुनिया
अपने
साथ लिए, उठ रही है सुदूर नील
पर्वतों से अरण्य पुष्पों की
महक, इक अदृश्य
सांसों का पुल,
प्रसारित
है मुझ
से हो कर तुम तक, ठहरे हुए हैं -
मेघ दल सीने में दबी हुई
बरसात लिए, ज़िन्दगी
अक्सर देती है
दस्तक
कुछ
लम्हों की सौगात लिए । सुबह है
इक बंद लिफ़ाफ़ा पुरअसरार
तहरीरों का, इस रात की
है अपनी अलग ही
कहानी, कोई
गुमशुदा
शहर हो जैसे उजड़े हुए मंदिरों का,
फिर भी ज़िन्दगी को है यक़ीं,
क्षितिज पार है इक नयी
आस की दुनिया कहीं
न कहीं, चल रहा
हूँ मैं अधबुझे
अंगारों
पर उसे पाने की अनंत साध लिए,
ज़िन्दगी अक्सर देती है दस्तक
कुछ लम्हों की सौगात
लिए ।
* *
- - शांतनु सान्याल
कुछ लम्हों की सौगात लिए,
दहलीज़ पर हो तुम, या
चल रहा हूँ मैं नींद
में इक ख़्वाब
की दुनिया
अपने
साथ लिए, उठ रही है सुदूर नील
पर्वतों से अरण्य पुष्पों की
महक, इक अदृश्य
सांसों का पुल,
प्रसारित
है मुझ
से हो कर तुम तक, ठहरे हुए हैं -
मेघ दल सीने में दबी हुई
बरसात लिए, ज़िन्दगी
अक्सर देती है
दस्तक
कुछ
लम्हों की सौगात लिए । सुबह है
इक बंद लिफ़ाफ़ा पुरअसरार
तहरीरों का, इस रात की
है अपनी अलग ही
कहानी, कोई
गुमशुदा
शहर हो जैसे उजड़े हुए मंदिरों का,
फिर भी ज़िन्दगी को है यक़ीं,
क्षितिज पार है इक नयी
आस की दुनिया कहीं
न कहीं, चल रहा
हूँ मैं अधबुझे
अंगारों
पर उसे पाने की अनंत साध लिए,
ज़िन्दगी अक्सर देती है दस्तक
कुछ लम्हों की सौगात
लिए ।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 मार्च, 2022
छत विहीन प्रासाद - -
स्मृतियों से पलायन कहाँ आसान,
समय का तेज़ घूमता हिंडोला,
और कोई शून्य से बार
बार फेंके है सुरभित
रुमाल, छूने
की चाह
में अक्सर ख़ुद को न पाएं संभाल,
हथेलियों में बंद जुगनू की
तरह कोई लगे रूह
तक शामिल,
मुट्ठी के
खुलते ही लगे धूसर सा अंतहीन -
नीला आसमान, स्मृतियों
से पलायन कहाँ
आसान।
खिलने के साथ ही है तयशुदा फूल
का मुरझाना, स्वर्ण जड़ित
फ्रेम में चाहे क्यूँ न
हो बहुमूल्य
दर्पण,
नहीं रूकती है चेहरे पर सुबह की -
नरम धूप, उसे तो हर हाल
में है ढल जाना, छत
विहीन स्तंभ रह
जाते हैं अपनी
जगह ओढ़े
हुए दूर
तक वीरानगी के चादर, धुंध में
खो जाते हैं सभी आनबान,
स्मृतियों से पलायन
कहाँ आसान।
* *
- - शांतनु सान्याल
समय का तेज़ घूमता हिंडोला,
और कोई शून्य से बार
बार फेंके है सुरभित
रुमाल, छूने
की चाह
में अक्सर ख़ुद को न पाएं संभाल,
हथेलियों में बंद जुगनू की
तरह कोई लगे रूह
तक शामिल,
मुट्ठी के
खुलते ही लगे धूसर सा अंतहीन -
नीला आसमान, स्मृतियों
से पलायन कहाँ
आसान।
खिलने के साथ ही है तयशुदा फूल
का मुरझाना, स्वर्ण जड़ित
फ्रेम में चाहे क्यूँ न
हो बहुमूल्य
दर्पण,
नहीं रूकती है चेहरे पर सुबह की -
नरम धूप, उसे तो हर हाल
में है ढल जाना, छत
विहीन स्तंभ रह
जाते हैं अपनी
जगह ओढ़े
हुए दूर
तक वीरानगी के चादर, धुंध में
खो जाते हैं सभी आनबान,
स्मृतियों से पलायन
कहाँ आसान।
* *
- - शांतनु सान्याल
25 मार्च, 2022
असलाह ज़रूरी है - -
अंतर पृष्ठ का रहस्योद्धार है बहोत
मुश्किल, जिल्द देख कर नहीं
होता अंदाज़ ए गहराई,
हर कोई अपने
अंदर लिए
होता
है
मुख़्तलिफ़ शख़्सियत, मुखौटे ओढ़
कर आसान है देना तक़रीर ए
नसीयत, कहने को एक
सी होती हैं सभी
परछाई, जिल्द
देख कर
नहीं
होता अंदाज़ ए गहराई। एक ही हैं
सभी देह, एक ही सांचे में ढले
हुए, कुछ तपे हुए, कुछ
अध पके माटी के
रेत से मिले
हुए, कोई
नहीं
यहाँ शत प्रतिशत ख़ालिस, आज
नहीं तो कल हर एक को देनी
है भरपाई, जिल्द देख
कर नहीं होता
अंदाज़ ए
गहराई।
* *
- - शांतनु सान्याल
मुश्किल, जिल्द देख कर नहीं
होता अंदाज़ ए गहराई,
हर कोई अपने
अंदर लिए
होता
है
मुख़्तलिफ़ शख़्सियत, मुखौटे ओढ़
कर आसान है देना तक़रीर ए
नसीयत, कहने को एक
सी होती हैं सभी
परछाई, जिल्द
देख कर
नहीं
होता अंदाज़ ए गहराई। एक ही हैं
सभी देह, एक ही सांचे में ढले
हुए, कुछ तपे हुए, कुछ
अध पके माटी के
रेत से मिले
हुए, कोई
नहीं
यहाँ शत प्रतिशत ख़ालिस, आज
नहीं तो कल हर एक को देनी
है भरपाई, जिल्द देख
कर नहीं होता
अंदाज़ ए
गहराई।
* *
- - शांतनु सान्याल
23 मार्च, 2022
कच्चे घड़े का पानी - -
सिमटती नदी के दोनों पार है अनंत
पलाश वन, रेत के आंचल पर
कोई उकेर गया जीवन -
दर्पण, ढूंढते हैं न
जाने किसे
अंतर
के मृग नयन, सिमटती नदी के दोनों
पार है अनंत पलाश वन। कहां
रुकता है कच्चे घड़े का
पानी, वही तुम हो
वही हम हैं
और
ज़िन्दगी है वही, इक बूंद की कहानी,
समेटता हूँ मैं, नाहक ही हथेलियों
पर, गिरते हुए उच्च जल प्रपात
का चंचल पानी, मोह
उतना ही है बेहतर
जिसे भूलने
में हो
ज़रा आसानी, कहां रुकता है कच्चे
घड़े का पानी।
* *
- - शांतनु सान्याल
पलाश वन, रेत के आंचल पर
कोई उकेर गया जीवन -
दर्पण, ढूंढते हैं न
जाने किसे
अंतर
के मृग नयन, सिमटती नदी के दोनों
पार है अनंत पलाश वन। कहां
रुकता है कच्चे घड़े का
पानी, वही तुम हो
वही हम हैं
और
ज़िन्दगी है वही, इक बूंद की कहानी,
समेटता हूँ मैं, नाहक ही हथेलियों
पर, गिरते हुए उच्च जल प्रपात
का चंचल पानी, मोह
उतना ही है बेहतर
जिसे भूलने
में हो
ज़रा आसानी, कहां रुकता है कच्चे
घड़े का पानी।
* *
- - शांतनु सान्याल
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