निःस्तब्ध रात्रि, अवाक पृथ्वी, आकाश तब
आलोक मुखर, एकात्म तुम और मैं,
उन पलों में केवल भासमान।
सुन्दर या असुंदर, तिक्त
या मिष्ठ सब कुछ
तब शून्य -
मात्र,
ऊर्ध्वमुखी तब देह प्राण, धूम्रवलय सम
महाप्रस्थान। जब खुलें फूलों के गंध -
कोष, तब खुल जाएँ बंद वातायन
अपने आप, सुरभित अंतर्मन
तब करे मुक्तिस्नान।
वैध अवैध सब
मानव रचना,
सृष्टि की
है अपनी अलग प्राकृत सुंदरता, उन्मुक्त
यहाँ सभी एक समान।
* *
- शांतनु सान्याल
आलोक मुखर, एकात्म तुम और मैं,
उन पलों में केवल भासमान।
सुन्दर या असुंदर, तिक्त
या मिष्ठ सब कुछ
तब शून्य -
मात्र,
ऊर्ध्वमुखी तब देह प्राण, धूम्रवलय सम
महाप्रस्थान। जब खुलें फूलों के गंध -
कोष, तब खुल जाएँ बंद वातायन
अपने आप, सुरभित अंतर्मन
तब करे मुक्तिस्नान।
वैध अवैध सब
मानव रचना,
सृष्टि की
है अपनी अलग प्राकृत सुंदरता, उन्मुक्त
यहाँ सभी एक समान।
* *
- शांतनु सान्याल