अख़बार की सुर्ख़ियों से
कभी निकल न पाए
ख़्वाब, फिर
अलसुबह,
घंटियां बजा रहा है वही
फेरीवाला। आवाज़
तो है वही
जानी
पहचानी मुद्दतों से सुनी,
मुखौटों के पीछे कभी
वो साफ़ मुंडा
कभी
दाढ़ीवाला। चारों तरफ
है सैलाब और लोग
अपनी अपनी
छतों पर,
दीवार ढहने तक नहीं
आया वो जांबाज
सीढ़ीवाला।
तमाम
उम्मीद बंद हैं, जंग
लगे संदूक में
यहाँ - वहाँ,
उंगलियों
में नचाता है वो - - -
अक्सर रंगीन
चाबीवाला।
* *
- शांतनु सान्याल
कभी निकल न पाए
ख़्वाब, फिर
अलसुबह,
घंटियां बजा रहा है वही
फेरीवाला। आवाज़
तो है वही
जानी
पहचानी मुद्दतों से सुनी,
मुखौटों के पीछे कभी
वो साफ़ मुंडा
कभी
दाढ़ीवाला। चारों तरफ
है सैलाब और लोग
अपनी अपनी
छतों पर,
दीवार ढहने तक नहीं
आया वो जांबाज
सीढ़ीवाला।
तमाम
उम्मीद बंद हैं, जंग
लगे संदूक में
यहाँ - वहाँ,
उंगलियों
में नचाता है वो - - -
अक्सर रंगीन
चाबीवाला।
* *
- शांतनु सान्याल
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