19 दिसंबर, 2017

तुम्हारा शहर - -

न जाने किस दिगंत पर जा उभरे,
वो टूटे ख़्वाब के कतरन, जब
नींद से जागे तो पाया हर
तरफ बिखरे हुए थे
धुंधलाए दर्पण।
कोई आहट
है जो
सीने पे आ ठहर जाती है मुस्तक़ल,
ख़ुश्बू की तरह कोई छुअन, छू के
मेरी रूह की परतें, पल में हो
जाती हैं ओझल। कौन
है वो, न जाने जो
खेलता है मेरी
सांसों से
आख़री पहर, इक अंतहीन ख़ामोशी
कोहरे में लिपटी हुई, सुनसान
राहों के बीच कहीं गुम होता
 है तब, रौशनियों में डूबा
हुआ तुम्हारा
शहर।

* *
- शांतनु सान्याल



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