05 फ़रवरी, 2013

रूह ख़ाना बदोश !

मेरे हिस्से की धूप थी काफ़ी या नाकाफ़ी, -
अब उसके मानी कुछ भी नहीं, ये
सच है कि उस महदूद दायरे
में, जीना हमने सीख
लिया, इक ज़रा
सी रौशनी ही
बहोत थी गुंचा ए तक़दीर बदलने के लिए,
अँधेरा है दोस्त क़दीमी अपना, हर
वक़्त रहता है दिल के क़रीब
यूँ साए की तरह, धूप
तो है रूह ख़ाना
बदोश !
वक़त ही नहीं देता ज़रा सँभलने के लिए,
अभी अभी था आसमां पर छाया
शाह ए रौशनी की मानिंद,
पलक झपकते न
जाने कहाँ
से उड़ आये बादलों के गिरोह आवारा, अब
भीगने के सिवा कोई रास्ता नहीं
बाक़ी  - -
* *
- शांतनु सान्याल

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