न फ़लक, न ज़मीं, हद ए नज़र, ये
कैसा इदराक दिल में है छाने
चला, इक ख़ालीपन
है हर सिम्त,
ग़ैर
मुन्तज़िर कोई नादीद अब्र, हो - -
जैसे बेक़रार सा, बिखर
जाने को,ये कैसा
जज़्ब तासीर
है उनकी
निगाहों का, हर शै है कोहरे में डूबा
हुआ इक सिवाय उन
झिलमिलाते
साहिल
ए पलक, कि हर बार ज़िन्दगी - -
उभर आती है मुक़्क़दस
सीडियों के किनारे,
वो पोशीदा
हाथ
मुझे कभी डूबने नहीं देते, हर बार
जल उठते हैं उदास, चिराग़ -
ए शब लिए सीने में,
सुलगते ख़्वाब
नए - -
* *
- शांतनु सान्याल
कैसा इदराक दिल में है छाने
चला, इक ख़ालीपन
है हर सिम्त,
ग़ैर
मुन्तज़िर कोई नादीद अब्र, हो - -
जैसे बेक़रार सा, बिखर
जाने को,ये कैसा
जज़्ब तासीर
है उनकी
निगाहों का, हर शै है कोहरे में डूबा
हुआ इक सिवाय उन
झिलमिलाते
साहिल
ए पलक, कि हर बार ज़िन्दगी - -
उभर आती है मुक़्क़दस
सीडियों के किनारे,
वो पोशीदा
हाथ
मुझे कभी डूबने नहीं देते, हर बार
जल उठते हैं उदास, चिराग़ -
ए शब लिए सीने में,
सुलगते ख़्वाब
नए - -
* *
- शांतनु सान्याल
बहुत ही भावपूर्ण सुन्दर कविता.
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद प्रिय मित्र
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