तीर कोई जो गुज़रा है, दिल के पार अभी,
ख़ामोश बग़ैर इशारा, संभल भी पाते
कि कर गई मजरुह जिस्म ओ
जां, किसी की इक नज़र,
अभी तलक है इक
मस्मुमियत
दर्दनाक !
इलाज ए दायमी नज़र न आए दूर तक !
ज़िन्दगी फिर है परेशां, न है ज़मीं
हमदर्द और न ही आशना ऐ
आसमां, ये वजूद
है मेरा या
ग़ैर मुतमईन भटकती रूह ए क़दीम - -
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
मस्मुमियत - नशा
दायमी - दीर्घ
ग़ैर मुतमईन - अतृप्त
क़दीम - प्राचीन
Dzign Art
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