खुल जाते हैं अपने आप सभी
अंतरतम दरवाज़े, जब
कभी ख़ुद को देखते
हैं आईने के
आर - पार।
हमारी अपनी ही कृति है वो
मायावी चक्र -व्यूह,
जिसमें उलझने
को जीवन
चाहता है बारम्बार। ज्ञात है
सभी को अंधकारमय
नेपथ्य का रहस्य,
फिर भी
परछाइयों के पीछे दौड़ता है
ये संसार। नदी हमेशा
की तरह झेलती है
दीर्घ एकांतवास,
लोग लौट
जाते हैं अग्नि दे कर अपने
घर द्वार। नदी का यक्ष -
प्रश्न अपनी जगह है
दृढ़ स्थिर,
अनुत्तरित देवताओं को नहीं
जैसे कोई सरोकार।
पुरोहित लौट
जाता है
स्वगृह संध्या के पश्चात, जीवन
- मरण के मध्य है तव लीला
अपरम्पार।
* *
- शांतनु सान्याल
अंतरतम दरवाज़े, जब
कभी ख़ुद को देखते
हैं आईने के
आर - पार।
हमारी अपनी ही कृति है वो
मायावी चक्र -व्यूह,
जिसमें उलझने
को जीवन
चाहता है बारम्बार। ज्ञात है
सभी को अंधकारमय
नेपथ्य का रहस्य,
फिर भी
परछाइयों के पीछे दौड़ता है
ये संसार। नदी हमेशा
की तरह झेलती है
दीर्घ एकांतवास,
लोग लौट
जाते हैं अग्नि दे कर अपने
घर द्वार। नदी का यक्ष -
प्रश्न अपनी जगह है
दृढ़ स्थिर,
अनुत्तरित देवताओं को नहीं
जैसे कोई सरोकार।
पुरोहित लौट
जाता है
स्वगृह संध्या के पश्चात, जीवन
- मरण के मध्य है तव लीला
अपरम्पार।
* *
- शांतनु सान्याल
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