15 मार्च, 2018

सुबह से पहले - -

मुझे मालूम है, उन्हें मुद्दतों से 
मेरी तलाश है, है रास्ता
वही पुराना मगर
मंज़र बदल
गए।
वही झील का किनारा, वही - -
परिंदों का डेरा, न जाने
कितने शाम आए,
और यूँ ही ढल
गए। सच
है कि
कुछ तो मेरा, अब तक उनके
पास है, कुछ सीने में हैं
दफ़्न, कुछ आँखों
से निकल
गए।
नज़रबंद सांसों का बाहर
निकलना था मुश्किल,
चिलमन ए जिस्म
में ख़ामोश
वो सभी
जल गए। कोई घायल मुसाफ़िर
 गुज़रा है इन सख़्त राहों से,
शीशे के सभी नाज़ुक
दरीचे अचानक
से दहल
गए।
इक ख़ामोशी जो सारे शहर को -
सुन्न कर गई, जो लोग
समझदार थे वो
सुबह से पहले
संभल
गए। 

* *
- शांतनु सान्याल

 



 

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