आदिम अंधकार से निकल कर जीवन ढूंढता है शीतकालीन नरम धूप,
हिमनद के अंदर बसते हैं
असंख्य तरल स्वप्न,
अदृश्य स्रोत
तलाशती
है सतत अपना खोया हुआ प्रकृत रूप,
आदिम अंधकार से निकल कर
जीवन ढूंढता है शीतकालीन
नरम धूप । बोगनवेलिया
की तरह झर जाते
हैं सभी रिश्तों
के काग़ज़ी
फूल,
चेहरे की है अपनी अलग ही मजबूरी
झुर्रियों के साथ वक़्त का आईना
वसूल कर जाता है पुराने
तारीफ़ों का महसूल,
कुहासे में छुपा
रहता है
चाहतों
का
गहरा कूप, आदिम अंधकार से निकल
कर जीवन ढूंढता है शीतकालीन
नरम धूप ।
- - शांतनु सान्याल

यार, ये कविता पढ़कर मैं सच में ठंडी धूप की याद में खो गया। आप हर लाइन में वो सूखी सर्दियों वाली गर्माहट जगा देते हो, जो दिल को थोड़ा शांत करती है और थोड़ा चुभती भी है। रिश्तों के काग़ज़ी फूल वाला हिस्सा मैं बार-बार पढ़ गया, क्योंकि वो सच को सीधा पकड़ लेता है।
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